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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८. आत्म अनुभव को अंग*
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*जासौं कहूं सबमैं वह एक सौ,*
*तौ कहैं कैसौ है आंखि दिखइये ।*
*जौ कहूं रूप न रेख तिसै कछु,*
*तौ सब झूठ कै मांनि कहइये ॥*
*जौ कहूं सुन्दर नैंननि मांझि,*
*तौ नैंनहूं बैंन गये पुनि हइये ।*
*क्या कहिये कहतैं न बनै कछु,*
*जौ कहिये कहतैं ही लजइये ॥२॥*
*वह निरुप है निराकार है* : मैं जब किसी से कहता हूँ कि वह प्रभु सर्वत्र समान है । तब वे पूछते हैं - वह कैसा है ? इसे हमें आंखों से दिखाओ ।
जब मैं कहता हूँ - उसका कोई रूप या आकार कुछ भी नहीं हाई, तो वो मेरा यह कथन असत्य मानते हैं ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह मेरे नेत्रों में विराजमान है - ऐसा यदि मैं कहता हूँ तो इन नेत्रों को वाणी(कहने की शक्ति) कहाँ है कि वे कुछ कह सकें ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह मेरे नेत्रों में विराजमान है - ऐसा यदि मैं कहता हूँ तो इन नेत्रों को वाणी(कहने की शक्ति) कहाँ है कि वे कुछ कह सकें ।
अतः उसके विषय में क्या क्या कहा जाय । उसका जब हम यथातथ रूप से(जैसा है वैसा) वर्णन नहीं कर पाते तो हमें अपने ज्ञान के विषय में संकोच होने लगता है ॥२॥
(क्रमशः)
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