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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*शिष्य गरीबदास* - सांभर में गरीबदासजी जब सात वर्ष के हो गये तब उनकी माता नान्हीबाईजी ने तथा दादूजी की बहिन हीरा(हवा) बाईजी ने विचार किया अब गरीबदास को दादूजी महाराज के पास आमेर भेज देना ही अच्छा है ।
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फिर किसी एक भक्त के साथ जो दादूजी के दर्शनार्थ आमेर जा रहा था, उसके साथ गरीबदासजी को भेजने की व्यवस्था की और एक पत्र लिखकर भक्त को दे दिया । उसमें लिखा था - प्रभो ! अब गरीबदास आपकी सेवा में रहने योग्य हो गया है अतः अब आप इसको अपना शिष्य बनाकर अपनी साधन पद्धति से निर्गुण ब्रह्म की उपासना में लगाइये ।
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यही हम दोनों की करबद्ध प्रार्थना है । गरीबदास उक्त भक्त के साथ आमेर गये और दादूजी का दर्शन करके उनके चरणों में साष्टांग दंडवत किया । फिर हाथ जोड़ कर सामने बैठ गये । साथ के भक्त ने उक्त पत्र दिया । दादूजी ने उसे पढ़कर स्वीकार कर लिया । फिर गरीबदासजी को दादूजी ने इस शब्द से उपदेश दिया -
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"आप आपण में खोजो रे भाई,
वस्तु अगोचर गुरु लखाई ॥टेक॥
ज्यों मही बिलोये माखण आवे,
त्यों मन मथियाँ तैं तत पावे ॥१॥
काष्ट हुताशन रह्या समाई,
त्यों मन मांहीं निरंजन राई ॥२॥
ज्यों अवनी में नीर समाना,
त्यों मन मांहीं साँच सयाना ॥३॥
ज्यों दर्पण के नहिं लागे काई,
त्यों मूरति मांहीं निरख लखाई ॥४॥
सहजैं मन मथिया तैं तत पाया,
दादू उनतो आप लखाया ॥५॥"
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फिर गरीबदासजी दादूजी के पास रहकर प्रभु प्राप्ति का साधन रूप भजन करने लगे तथा संगीत का भी अभ्यास करने लगे । आगे चलकर राजस्थान के वे प्रधान संगीतज्ञ कहलाये थे ।
(क्रमशः)
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