बुधवार, 29 जुलाई 2015

२८ . आत्म अनुभव को अंग ~ ३

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८. आत्म अनुभव को अंग*
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*होत विनोद जु तौ अभिअंतरि,* 
*सो सुख आपु मैं आपु हि पइये ।* 
*बाहिर कौ उमग्यौ पुनि आवत,* 
*कंठ तैं सुन्दर फेरि पठइये ॥* 
*स्वाद निबेरैं निबेर्यौ न जात,* 
*मनौं गुर गूंगे हि ज्यौं नित खइये ।* 
*क्या कहिये कह तैं न बनैं कछु,* 
*जौ कहिये कहतैं ही लजइये ॥३॥* 
आत्मसाक्षात्कार के बाद जो हृदय में आनन्दानुभूति होती है, उस ब्रह्म का स्वयं ही अनुभव किया जा सकता है । 
परन्तु जब उसको दूसरों के लिये कहना आरम्भ करते हैं तो बात कण्ठ तक आकर रह जाती है । 
उस आनन्दरस जब हम विश्लेषण करना चाहते हैं तो हम वैसे ही उसे नहीं कर पाते जैसे गूँगा गुड़ खा कर भी उस के स्वाद का वर्णन नहीं कर पाता । 
अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं – उसके विषय में क्या कहा जाय; क्योंकि जब हम उसका यथातथ रूप से वर्णन ही नहीं कर पाते तो हमें स्वयं संकोच होने लगता है ॥३॥ 
(क्रमशः)

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