#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९४. राज मृगांक ताल ~
नीके मोहन सौं प्रीति लाई ।
तन मन प्राण देत बजाई, रंग रस के बनाई ॥ टेक ॥
ये ही जीयरे वे ही पीवरे, छोड्यो न जाई, माई ।
बाण भेद के देत लगाई, देखत ही मुरझाई ॥ १ ॥
निर्मल नेह पिया सौं लागो, रती न राखी काई ।
दादू रे तिल में तन जावे, संग न छाडूं , माई ॥ २ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरह का स्वरूप कह रहे हैं कि हे संतों ! अब तो हमने माया से प्रीति हटाकर मोहन के साथ अच्छी प्रकार अपनी प्रीति लगाई है । हृदय में अखंड प्रेम रूपी बाजे बजाते हुए हम अपना तन - मन - प्राण मोहन को समर्पण कर रहे हैं । उसके निष्कामी भक्ति रूपी रंग में अपनी इन्द्रियों को भी रंगकर रस पीने वाली बना ली हैं । वही हमारे पीव हमारे जीवरूप हैं । हे संतों ! अब हम उनको छोड़ नहीं सकते । क्योंकि वे फिर अपना वियोग रूपी विरह के बाण लगा देते हैं, जिससे हमारा हृदय कमल कुम्हला जाता है । अब तो हमारा निर्मल निर्वासनिक स्नेह, प्रीतम प्यारे परमेश्वर से लगा है । अब हम उनसे एक रत्ती भी ‘कालिमा’, कहिए अन्तर नहीं रखते हैं, क्योंकि हे संतों ! यह हमारा तन एक क्षण में जाने वाला है, न मालूम कब चला जाय ? इसलिए अब हम अपने स्वामी अधिष्ठान चेतन परमेश्वर का संग नहीं छोड़ेंगे ।
अब मेरी मोहन सूं बन आई ।
सब गुण आगर जगत उजागर, ब्रह्मादिक गुण गाई ॥ टेक ॥
आठ पहर में चितवत रहि हूँ, निर्धन ज्यों धन पाई ॥ १ ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, अंग में अंग समाई ॥ २ ॥
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