शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

卐 सत्यराम सा 卐
२४२. राज विद्याधर ताल ~
मेरा गुरु आप अकेला खेलै ।
आपै देवै आपै लेवै, आपै द्वै कर मेलै ॥ टेक ॥ 
आपै आप उपावै माया, पंच तत्व कर काया ।
जीव जन्म ले जग में आया, आया काया माया ॥ १ ॥ 
धरती अंबर महल उपाया, सब जग धंधै लाया ।
आपै अलख निरंजन राया, राया लाया उपाया ॥ २ ॥ 
चन्द सूर दोइ दीपक कीन्हा, रात दिवस कर लीन्हा ।
राजिक रिजक सबन को दीन्हा, दीन्हा लीन्हा कीन्हा ॥ ३ ॥ 
परम गुरु सो प्राण हमारा, सब सुख देवै सारा ।
दादू खेलै अनन्त अपारा, अपारा सारा हमारा ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें गुरु उपदेश का परिचय दे रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमारे परब्रह्म रूप गुरुदेव ही आप स्वयं अकेले संसार में व्यापक रूप से खेल रहे हैं । आप स्वयं ही भक्तों को दर्शन देते हैं और आप ही भक्तों का अर्पण किया हुआ पत्र, पुष्प, फल, जल आदि को ग्रहण करते हैं और आप ही भक्तों की भाव भक्ति के द्वारा निज रूप भक्तों से मिलते हैं और वे समर्थ परमेश्वर, अपने आपसे ही आप माया उत्पन्न करते हैं और फिर माया के पांच तत्व और फिर पांच तत्त्वों से काया की रचना करते हैं । फिर शरीरधारी जीव जन्म लेकर संसार में आता है यह काया रूप माया लेकर । उस समर्थ प्रभु ने धरती रूप आंगन और आकाशरूपी छत वाला, यह ब्रह्माण्ड रूप महल उत्पन्न किया है और इसमें सम्पूर्ण जगत् के जीवों को कर्म रूपी धंधों में लगाये हैं । वह आप स्वयं मन - वाणी का अविषय, अलख, निरंजनरूप राजा, जीव को उत्पन्न करके, कर्मों में लगाया है । उपरोक्त ब्रह्माण्ड रूपी महल के उसने चन्द्रमा - सूर्य रूप दो दीपक रचे हैं और फिर रात - दिन बनाकर कर्मानुसार सबको फिर आप ही राजिक रूप होकर रिजक दे रहे हैं । और जीव ले रहे हैं । ऐसा काम वह समर्थ आप करता है । वह ही हमारे परम गुरुदेव, प्राणों से भी अधिक हमें प्रिय हैं । वही हमको सम्पूर्ण सुखों में सार सुख के देने वाले हैं । इस प्रकार मुक्त पुरुष, उस अनन्त अपार, सबके सार स्वरूप सुख को, अपना स्वरूप जानकर उस विश्व के सार रूप को अपना निज रूप करके ही निश्चय किया है ।
यं न प्रकाशयति किंचिद्दिनोऽपिचन्द्रः, 
नो विद्युतः किमुत विेरयं मिताभः ॥ २४२ ॥ 
यः भान्तमेतमनुभाति जगत्समस्तं, 
सोऽयं स्वयं स्फुरति सर्वदशासु चात्मा ॥ २४२

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें