मंगलवार, 28 जुलाई 2015

= ९३ =

दादूराम सत्यराम
फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।
दादू सो सेवक नहीं, खेले अपना दाव ॥९१॥
Those who serve and beg the Lord of the three worlds for worldly fruit, They are not true servants; they are playing their game, O Dadu.
सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।
दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥९२॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन अन्तर्यामी त्रिभुवनपति परमेश्वर से भोग्य पदार्थ एवं स्वर्ग आदि लोकों की याचना करते हैं, परन्तु ऐसे पुरुष प्रभु के पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले सेवक नहीं हैं । वे स्वार्थपूर्ति हेतु भक्ति का ढोंग करते हैं । ऐसे माया में आसक्ति रखने वाले मूर्ख संसारीजन कहिए, निषिद्ध भोगों में फँसे हुए नाना प्रकार के सकाम कर्म करते रहते हैं । अतः वे सब मोक्ष रूपी फल से निष्फल ही रहते हैं ॥९१/२॥
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स्मरण नाम महात्म
तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार।
दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार॥९३॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सिरजनहार परमेश्वर के नाम - स्मरण में अपने तन को निर्दोष(चोरी, जारी, हिंसा से रहित) बनाकर और मन को संकल्प, विकल्प, तृष्णा से हटाकर, लगे रहें और फिर परमेश्वर से इस लोक और परलोक के तुच्छ पदार्थों की याचना न करें, ऐसे निष्कामी पतिव्रत - धर्म धारण करनेवाले बिरले पुरुष होते हैं ॥९३॥
(श्री दादूवाणी~निष्काम पतिव्रता का अंग)

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