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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९५. परमेश्वर महिमा । राज विद्याधर ताल ~
तुम बिन ऐसैं कौन करै !
गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथै मुकुट धरै ॥ टेक ॥
नीच ऊँच ले करै गुसांई, टार्यो हूँ न टरै ।
हस्त कमल की छाया राखै, काहू तैं न डरै ॥ १ ॥
जाकी छोत जगत को लागै, तापर तूँ हीं ढ़रै ।
अमर आप ले करे गुसांई, मार्यो हूँ न मरै ॥ २ ॥
नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै ।
दादू बेगि बार नहीं लागै, हरि सौं सबै सरै ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्वर की महिमा दिखा रहे हैं कि हे हमारे स्वामी दयालु परमेश्वर ! गरीबों को निवाजने वाले ! आपके बिना ऐसी दया हम अधम पापी जीवों पर कौन कर सकता है ? मैं स्त्री, धर्म सम्पन्न वेश्या जाति में मुझसे ब्राह्मण वगैरा नफरत करते हैं, परन्तु आप मुझ अभक्त पर दया करके मेरे हाथों से अपने सिर पर मुकट धारण कर रहे हो । हे गुसांई ! मेरे जैसी नीच स्त्री को भी आपने अपनी शरण में लेकर उच्च राम - भक्तों में मुझे शामिल कर दिया है । फिर ऐसे भक्त को आपकी भक्ति से कोई हटावे तो वह हट नहीं सकता क्योंकि आप अपने कमाल रूप हाथों की छाया में, कहिए शरण में रखते हो फिर वह भक्त, राजा से रंक पर्यन्त और यमराज आदि के किसी भी भय से नहीं डरते । हे दयालु ! जिस रजस्वला स्त्री की छोत जगत मानता है, उस पर आप दया करके अपनी शरण में अमर कर लेते हो, वह फिर किसी के मारने से भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होती । हे नाथ ! नामदेव छीपा, कबीर जुलाहा, रैदास चमार कुल में सब ही जन आपकी शरण में आकर, आपके नाम - स्मरण द्वारा संसार - समुद्र से तैर गये हैं । हे हरि ! आपके भक्तों के सम्पूर्ण काम शीघ्रतापूर्वक आप ही सब सिद्ध करते हो ।
भक्तमाल से ~ दक्षिण भारत पंडलपुर नगर में रंगनाथ भगवान ने रजस्वला वेश्या स्त्री के भाव - भक्ति और प्रेम भरे हाथों से अर्पण किए हुए सोने के मुकट को भगवान् ने सिर झुकाकर धारण किया है । यह कथा भक्तमाल जी में समदाई छप्यय ८८ पृष्ठ ९६ टीका में आती हैं ।
राधो रंगनाथ जी को सीस आयो सनमुख,
बार मुखी बार - बार लेत नित वारणा ।
मैं हूँ महा मध्यम अछोप मतिहीन मेरी,
तुम प्रभु ! प्राणनाथ पतित उधारणा ॥
मुकुट चढ़ावत मगन भई मातंग ज्यों,
जग मध्य जै जै कार गेह गेह वारणा ।
गनिका मुकति भई चारों जुग माहीं चार,
जीत लियो जनम बिना ही जोग धारणा ॥
भजन
हरि बिन को पत राखै मेरी ।
दुःसह दुःशासन अंध अंध को, आन समा में घेरी ॥ टेक ॥
भीषम कर्ण द्रोण से ठाडे, किनहुँ न पाछी फेरी ।
यों मति भ्रष्ट भई सबहिन की पकर लई जिमि चेरी ॥ १ ॥
भई अनाथ रक्षक को नाहीं, दृष्टि चहुँ दिशि फेरी ।
अब के सहाइ करो करुणानिधि, डूबत राखो बेरी ॥ २ ॥
दृढ़ विश्वास भयो जिय मेरे, हरि हिरदा में टेरी ।
हा हा ! कृष्ण द्वारका वासी, जनम जनम की चेरी ॥ ३ ॥
तज खगराज आतुर हो ध्याये, ताप हरी जन केरी ।
‘सूर’ रमापति चीर बधायो, बई नाम लग ढ़ेरी ॥ ४ ॥
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