सोमवार, 27 जुलाई 2015

२८ . आत्म अनुभव को अंग ~ १


🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८ . आत्म अनुभव को अंग*
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*इन्दव छंद* 
*है दिल मैं दिलदार सही,*
*अंखिया उलटी कर ताहि चितइये ।*
*आब मैं खाक मैं बाय मैं आतस,*
*जांन मैं सुन्दर जांनि जनइये ॥*
*नूर मैं नूर है तेज मैं तेज है,*
*ज्योति मैं ज्योति मिलैं मिल जइये ।*
*क्या कहिये कहतै न बनै कछु,*
*जौ कहिये कहतैं हि लजइये ॥१॥*
*परमेश्वर का हृदय में वास* : तुम्हारा प्रियतम परमेश्वर तुम्हारे हृदय में ही विराजमान है, आँखें घुमा कर देखो तो सही ! (ईशवर: सर्वभूतानां हृदेशेsर्जुनतिष्ठति - गीता ।)
जल, भूमि, वायु, तेज - इन सब में ही वही सुन्दर विद्यमान है; तुम जानना चाहो तो जान सकते हो ! 
वह ज्योति में ज्योति है, तेज में तेज है, आभा में आभा है, उस का क्या वर्णन किया जाय; वह वर्णन करने में आता ही नहीं ! 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उसका वर्णन आरम्भ करते हैं तो वर्णन कर नहीं पाते, अतः हमें संकोच होता है, लज्जा आती है ॥१॥
(क्रमशः)

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