🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८. आत्म अनुभव को अंग*
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*व्योम सौ सोम्य अनंत अखंडित,*
*आदि न अंत सु मध्य कहां है ।*
*को परिमान करै परिपूरन,*
*द्वैत अद्वैत कछू न जहां है ॥*
*कारन कारज भेद नहीं कछु,*
*आपु मैं आपु ही आपु तहां है ।*
*सुन्दर दीसत सुन्दर मांहिं सु,*
*सुन्दरता कहि कौंन उहां है ॥४॥*
आकाश व्यापक है, अखण्ड है । उसका न आदि है, न अन्त है न मध्य ।
इसी तरह उस परिपूर्ण परमात्मा का परिमाण कौन जान सकता है, जहाँ द्वैत या अद्वैत कुछ भी नहीं है ।
वहाँ कारण एवं कार्य का भेद नहीं है, क्योंकि वह स्वयं अपने आप में वहाँ है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह वाह्य एवं आभ्यन्तर सर्वत्र सुन्दर है; परन्तु उसकी वह सुन्दरता कैसी है - इसका यथातथ रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता ॥४॥
(क्रमशः)
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