शनिवार, 1 अगस्त 2015

 
#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९७. हैरान । उत्सव ताल ~
हम तैं दूर रही गति तेरी । 
तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपुरी मति मेरी ॥ टेक ॥ 
मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं । 
सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुँचैं तांहीं ॥ १ ॥ 
जोग न ध्यान ज्ञान गम नांही, समझ समझ सब हारे । 
उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे ॥ २ ॥ 
खोज परे गति जाइ न जानी, अगह गहन कैसे आवे । 
दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावे ॥ ३ ॥ 
इति राग नट नारायण सम्पूर्णः ॥ १८ ॥ पद ७ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव ब्रह्म - स्वरूप की आश्‍चर्यता दिखा रहे हैं कि हे समर्थ पूर्ण ब्रह्म ! आपका स्वरूप हमारे मन इन्द्रियों से अप्राप्य है, जैसे आप अखण्ड हो, निर्गुण हो, वैसे आप ही अपने आपको जानते हो । मेरी बेचारी बुद्धि आपको क्या जान सकती है ? आपका स्वरूप मन से भी अगम्य है । मन को आपके स्वरूप की गम नहीं होती और दृष्टि से भी आप अविषय हैं । मनसा की भी आपमें गम नहीं पहुँचती । बुद्धिरूप सुरति की भी ‘बल’ नाम शक्ति थकित हो रही है, आपके स्वरूप में पहुँच नहीं पाती, वहाँ वचन तो पहुँच ही क्या सकता है ? 
अष्टांग योग के करने वाले योगी, भेद वृत्ति वाले ध्यानी और लौकिक वैदिक ज्ञान वाले ज्ञानी, इन साधनों के द्वारा आपकी खोज कर - करके थकित हो रहे हैं और जो उनमनी मुद्रा की साधना वाले और हृदय में प्राणों का निरोध करने वाले, वे भी आपका पार नहीं पाये हैं । आपकी उपरोक्त साधनों के द्वारा खोज करने वाले खोजी थकित हो गये हैं । आपकी गति जानी नहीं जाती है, क्योंकि आप अगह हैं, आपका स्वरूप ग्रहण करने में कैसे आवे ? हे अव्यक्त ! आप जिन भक्तों पर दया करके अपने व्यापक रूप का दर्शन देते हो, वही भाग्यशाली साधक आपका दर्शन पाते हैं । 
पद ~
अकल हि कौन कलै कलि माहीं । 
आदि अन्त मधि महापुरष सब, पार ही पावै नाहीं ॥ टेक ॥ 
ब्रह्मा आदि विचारत थाके, शंकर सोच शरीरा । 
नारद सहित सकल सिध साधक, तेऊ न लहै तट तीरा ॥ १ ॥ 
शेष सहस द्वै रसन रटत नित, परम प्रमाण न जाने । 
नेति नेति कहै निगम पुकारत, तेऊ है हैराने ॥ २ ॥ 
ख्याल परे षट दरसन खोजे, कोई खबर न पावै । 
अगम अगाध गगन गति गोविंद, ‘रज्जब’ खग कहाँ ध्यावै ॥ ३ ॥ 
इति राग नट नारायण टीका सहित सम्पूर्ण ॥ १८ ॥ पद ७ ॥ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें