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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= २२ वां विन्दु चतुर्थदिन =*
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*= राजान्न का त्याग =*
आमेर नरेश भगवतदास ने बादशाह की दी हुई सामग्री से अति सुन्दर नाना प्रकार का भोजन बनवाया । फिर हलकारे(दूत) को कहा - दादूजी महाराज को शीघ्र ही बुला लाओ । हलकारे ने जाकर दादूजी को दंडवत प्रणाम किया और कहा-आपको आमेर नरेश भगवत्- दास शीघ्र ही बुला रहे हैं ।
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दादूजी ने पूछा-राजा आदि सब घर वाले प्रसन्न तो हैं । उसने कहा - सब प्रसन्न हैं, आपको केवल दर्शनार्थ ही बुलाया है और विराजने के लिये राजा ने पालकी भेजी है, आप उस पर विराज कर पधारें । हलकारे की उक्त बात सुन कर दादूजी ने कहा - हम तो पैदल चलेंगे, राजा को दर्शनार्थ तो यहां स्वयं ही आना चाहिये था । किंतु कोई नहीं, हम ही चलते हैं । ऐसा कहकर हलकारे के साथ ही चल दिये ॥
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दादूजी की चर्या रूप लीला को देखकर सज्जन तो प्रसन्न होते थे और दुर्जन अपने मन में जलते थे किंतु दादूजी का व्यवहार तो सब के साथ समता और मर्यादा पूर्वक ही होता था । हलकारे ने राजा के पास जाकर कहा - स्वामी जी पधार गये हैं ।
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तब राजा शीघ्रता से दादूजी को स्वागत पूर्वक लेने के लिये बाहर आया और सत्यराम बोलकर अपना मस्तक नमा के प्रणाम किया और हलकारे को कहा - पालकी में बैठाकर स्वामीजी को लाने का तुमको कहा था, स्वामीजी को पैदल क्यों लाया है ?
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तब दादूजी ने कहा - यह इसका दोष नहीं है किंतु मै अपनी इच्छा से पैदल आया हूँ । राजा ने पूछा क्या कारण ? दादूजी ने कहा - मेरे विचार ऐसे ही हैं । राजा - कैसे ? तब दादूजी ने कहा -
"साहिब की आतमा, दीजे सुख संतोष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥
काहे को दुख दीजिये, घट घट आतम राम ।
दादू सब संतोषिये, यहु साधुन का काम ॥
आतम राम विचार कर, घट घट देव दयाल ।
दादू सब संतोषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥"
उक्त प्रकार दया निर्वैरता रूप विचारों को सुन कर राजा का भ्रम दूर हो गया । फिर हलकारे को कुछ नहीं कहा ।
(क्रमशः)
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