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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= २२ वां विन्दु चतुर्थ दिन =*
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उक्त सब साखियां बोलकर दादूजी ने कहा - तुमने नाम भेद कहा है, सो हमारे हृदय में नहीं है । नाम रूप का भेद तो मायिक गुणों द्वारा होता है । नामी परब्रह्म है उसमें भेद कुछ भी नहीं है । नामी परब्रह्म तो सच्चिदानन्द स्वरूप है । भोजन के अनेक नाम होते हैं किंतु उन अनेक नामों वाले भोजन का फल एक तृप्ति ही होता है, वैसे ही परब्रह्म के नाम तो अनेक हैं किंतु निष्काम भाव से चिन्तन करने पर सबका फल एक परब्रह्म की प्राप्ति ही होता है -
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"दादू एकै अल्लह राम है, समर्थ सांई सोय ।
मैदे के पकवान सब, खातां होय सु होय ॥"
अर्थात् जैसे मैदा के अनेक पकवानों के खाने से तृप्ति होती है, वही होगी, वैसे ही ईश्वर के सब नामों का निष्काम भाव से चिन्तन करने पर परब्रह्म की प्राप्तिरूप फल होता है वही होगा, अन्य नहीं हो सकता ।
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पद - "अलह कहो भावै राम कहो, डाल तजो सब मूल गहो ॥टेक॥
अलह राम कह कर्म दहो, झूठे मारग कहा बहो ॥१॥
साधू संगति तो निबहो, आप परे सो शीश सहो ॥२॥
काया कमल दिल लाय रहो, अलख अलह दीदार लहो ॥३॥
सद्गुरु की सीख अहो, दादू पहुँचे पार पहो ॥४॥
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दूसरा पद - हिन्दू तुरक न जानूं दोय,
सांई सबन का सोई है रे, ओर न दूजा देखूं कोय ॥टेक॥
कीट पतंग सबै योनिन में, जल थल संग समाना सोहि ।
पीर पैगम्बर देवा दानव, मेरे मलिक मुनि जनको मोहि ॥१॥
कर्ता है रे सोई चीन्हौं, जनि वै क्रोध करे रे कोय ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम रहीम देही तन धोय ॥२॥
सांई केरी सेवा कीजे, पायो धन काहे को खोय ।
दादू रे जन हरि जप लीजे, जन्म जन्म जे सुर जन होय ॥३॥"
हिन्दू मुसलमान को दो मत समझो, सबका उत्पन्न करने वाला वह एक ही परमात्मा है और किसी दूसरे को मैं नहीं देखता । जल तथा स्थल के कीट पतंगादि सभी योनियों में वह ईश्वर समाया हुआ रहकर सबके साथ रहता है । पीरों पैगम्बरों, देवताओं, दानवों, सरदारों, बादशाह और मुनिजन सबको वह मोहित करता है ।
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वास्तविक कर्ता जो ईश्वर है, उसी को पहचानो । बिना विचार एक पक्ष को पकड़कर कोई किसी पर क्रोध न करें । जैसे दर्पण को मांजकर साफ करने से मुखादि शरीर ठीक दीखता है, वैसे ही अन्तःकरण को भजन के द्वारा मांज-कर पवित्र करो, फिर राम और रहीम एक ही भासेंगे । इस प्रकार निष्पक्ष मध्यमार्ग द्वारा परमात्मा की भक्ति करो ।
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मानव देह रूप धन प्राप्त होने पर भी इसे व्यर्थ विषयों में क्यों खो रहे हो ? हे जनों ! जिसके सुर भी भक्त हैं वह परमात्मा तुम्हारे प्रति जन्म में तुम्हारे सहायक होते हैं, उन्हीं हरि का नाम जप कर उन्हें प्राप्त कर लो, तब ही यह मानव जन्म सफल होगा ।
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दादूजी का उक्त उपदेश सुनकर अकबर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला - भगवन् ! आप में किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं दिखाई देता है । आप सर्वथा निष्पक्ष संत हैं । मेरे भाग्योदय से मुझे आपका सत्संग मिला है । आप मेरे अपराधों को अवश्य क्षमा करेंगे । मैंने आपको क्षुब्ध करने की चेष्टा की थी किन्तु आप तो उस समय भी परम धैर्य से युक्त ही रहे ।
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अब सत्संग का समय समाप्त हो गया था । इससे प्रवचन समाप्त करके दादूजी बाग में पधारने के लिये खड़े हो गये । तब बादशाह आदि सर्व सभा के लोगों ने उठकर दादूजी को प्रणाम किया । फिर दादूजी 'सत्यराम' बोलकर बाग को पधार गये ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग चतुर्थ दिन विन्दु २२ समाप्तः ।
(क्रमशः)
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