सोमवार, 30 नवंबर 2015

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू पाणी मांहीं पैसि करि, देखै दृष्टि उघारि ।
जलाबिंब सब भरि रह्या, ऐसा ब्रह्म विचारि ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
दुसरे की निंदा अपनी हीनता की घोषणा है ~
वस्तुत: जब किसी व्यक्ति के जीवन में साधुता का प्रकाश होता है, तो वह तुम्हें नीचे नहीं रखता। वह तो कहता है, तुम भी भगवान हो, तुम भी आत्मवान हो, तुम भी वहीं हो जहां मैं हूं। मुझे पता चल गया, तुम्हें पता नहीं चला, इतना सा भेद है। यह भी कोई खास भेद है! तुम्हारी जेब में हजार रुपए पड़े हैं, मेरी जेब में हजार रुपए पड़े हैं, मुझे पता चल गया, मैंने जेब में हाथ डाल लिया, तुमने हाथ नहीं डाला; यह भी कोई बड़ा भेद है! हजार रुपए तुम्हारी जेब में भी पड़े हैं, तुम जब हाथ डाल लोगे, तभी उपलब्ध हो जाएंगे। न भी हाथ डालो तो भी उपलब्ध हैं ही।
जानने में फर्क हो सकता है, होने में कोई फर्क नहीं है। बोध में फर्क हो सकता है, अस्तित्व में कोई फर्क नहीं है। तुममें वही है जो बुद्ध में है, तुममें वही है जो कृष्ण में है, रत्तीभर कम नहीं; तुममें वही है जो मुझमें है, रत्तीभर कम नहीं। सिर्फ तुमने कभी अपनी गाठ खोलकर देखी नहीं। तुमने कभी अपने भीतर टटोला नहीं। बस टटोलने का फर्क है, जिस दिन टटोल लोगे उसी दिन हो जाएगा।
ऐसा नहीं कि तुम पापी हो। परमात्मा पापी कैसे हो सकता है! ऐसा नहीं कि तुम नारकीय हो, परमात्मा कैसे नारकीय हो सकता है! तुम हो तो परम अवस्था में, लेकिन तुम लौटकर अपनी तरफ देखते नहीं। तुम्हारी आखें बाहर भटक रही हैं। बाहर भटकती आखें भीतर के खजाने से अपरिचित रह जाती हैं, बस, इतना ही फर्क है। फिर अगर साधु को भी यह न दिखायी पड़े कि फर्क न के बराबर है, न कुछ है, तो फिर किसको दिखायी पड़ेगा?
बुद्ध से किसी ने पूछा कि जब आप ज्ञान को उपलब्ध हुए, फिर क्या हुआ, बुद्ध ने कहा, फिर एक बात घटी—जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, उसी दिन सारा संसार मेरे लिए ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उस दिन से मैंने अज्ञानी नहीं देखा।
बुद्ध का सारा जीवन लोगों को यही समझाने में बीता कि तुम अज्ञानी नहीं हो। तुम जिद्द करते हो कि हम अशानी हैं। और बुद्धों का सारा प्रयास यही है समझाना कि तुम नहीं हो; तुम्हारी भ्रांति तोड़नी है। तुम मालिक हो, तुमने गुलाम समझा हुआ है। तुम विराट हो, तुमने छोटे के साथ अपना संबंध बना लिया। आंखें आकाश की तरफ उठाओ, सारा आकाश तुम्हारा है, तुम आखें जमीन पंरं गड़ाए खड़े हो। इससे यह नहीं होता कि आकाश तुम्हारा नहीं रहा, सिर्फ तुम्हारी आखें छोटे में उलझ गयी हैं। मगर आंखों की क्षमता आकाश को भी समा लेने की है। कितने ही छोटे में उलझे रहो, जिस दिन आंख उठाओगे, उस दिन पूरा आकाश तुम्हारी आंखों में प्रतिबिंबित हो उठेगा।
बुद्ध ने कहा, जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हुआ। आदमियों की तो छोड़ ही दो, पशु—पक्षी, पौधे, सब आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गए। आत्मशानी जब अपने खजाने को देखता है, उसी क्षण उसे दिखायी पड़ जाता है—सब खजाना लिए चल रहे हैं; सबके भीतर दीप्त है वह दीया, सबके भीतर रोशनी जल रही है। अजीब है हालत कि लोग अपनी रोशनी नहीं देखते और भागे चले जा रहे हैं रोशनी की तलाश में; भागे चले जा रहे हैं धन की तलाश में और धन भीतर पड़ा है, ऐसा धन जिसे तुम चुकाओ तो भी चुके नहीं। जिसे तुम उलीचो तो उलीच न पाओ। जिसे तुम फेंकते जाओ और बढ़ता चला जाए, ऐसा धन है। ऐसा परम धन भीतर पड़ा है।
बुद्धपुरुष तुम्हें पापी से पुण्यात्मा नहीं बनाते। तुमने अपने को देखा नहीं है, बस, तुम्हें अपने को देखने की सूझ, सीख देते हैं

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