शनिवार, 28 नवंबर 2015

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू साचा साहिब शिर ऊपरै, ताती न लागै बाव ।
चरण कमल की छाया रहै, किया बहुत पसाव ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
अहंकार अपने से ऊपर कभी किसी को रखता ही नहीं। जो अहंकार अपने से ऊपर किसी को रख ले, वही शिष्य हो गया। जो अहंकार अपने से ऊपर किसी को रखता ही नहीं है, वह कभी शिष्य नहीं हो सकता। शिष्यत्व की कला तो इतनी सी है—अपने अहंकार को किसी से नीचे रख लेना।
इसी कला के कारण इस देश में गुरु के चरणों में झुकने का मूल्य बना। वह तो प्रतीक है। वह तो बाह्य प्रतीक है भीतर की घटना का। भीतर को कैसे कहें? तो बाहर के किसी प्रतीक से कहते हैं। दुनिया के किसी देश ने पैरों में झुकने की कला नहीं खोजी। एक अपूर्व संपदा से वे वंचित रह गए।
पश्चिम में कोई किसी के पैर छूने को राजी नहीं—खयाल भी नहीं उठता, बात ही गलत मालूम पड़ती है, बात ही अपमानजनक मालूम पड़ती है। पश्चिम जीता अहंकार से, पूरब जीता समर्पण से। पश्चिम जीता संघर्ष से, पूरब जीता विनम्रता से। पूरब ने एक कला खोजी है—सीखने की कला हमला नहीं है, सीखने की कला झुक जाना है। और जो जितना ज्यादा झुक जाता है, उतना ही भर जाता है।
तुम नदी के किनारे खड़े हो। नदी बह रही है, तुम प्यासे हो। तुम झुकों न, अंजुली न बनाओ, तो प्यासे के प्यासे रह जाओगे। नदी तुम्हारे ओंठों तक आने से रही। तुम्हें झुकना होगा, तुम्हें हाथ की अंजुली बनानी होगी, तुम्हें जल भरना होगा, तो नदी तुम्हारी तृप्ति करने को तैयार है।....osho

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