सोमवार, 30 नवंबर 2015

(३४. आश्चर्य को अंग=८)


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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
*खोजत खोजत खोजि रहे अरु,* 
*खोजत हैं पुनि खोजित हैं आंनै ।* 
*गावत गावत गाइ गये बहु,* 
*गावत है अरु गाइ हैं गांनै ॥* 
*देखत देखत देखि थके सब,* 
*दीसै नहीं कहुं ठौर ठिकांनैं ।* 
*बूझत बूझत बूझि कै सुन्दर,* 
*हेरत हेरत हेरि हिरांनै ॥८॥* 
जिज्ञासु इस(ब्रह्म) को खोजते हुए खोजते ही रह गये; परन्तु वे उसे खोज नहीं पाये, अतः वे दूसरे की खोज में लग गये । 
वे इसका गुणगान करते हुए करते ही रह गये; परन्तु वे इसका पूर्ण गुणगान नहीं कर पाये । 
वे इसको देखने लगे तो देखते ही रह गये । अन्त में उनने भी हार मान ली । तथा हार कर किसी अन्य को देखने में लग गये । 
कुछ जिज्ञासु उसको समझते सझते ही रह गये । अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं, इसको खोजने वाले ये सभी जिज्ञासु खोजते ही रह गये और अन्त में हार मान बैठे ॥८॥ 
(क्रमशः)

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