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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४५ दिन २७ =*
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*= नवधा भक्ति वर्णन =*
२७वें दिन प्रातःकाल ही अकबर बादशाह, आमेर नरेश भगवतदास और बीरबल साथ ही सत्संग के लिए बाग में दादूजी के पास आए । सबने दादूजी के चरणों में शिर नमा कर प्रणाम किया । फिर सब हाथ जोड़े हुए सामने बैठ गये, तब अकबर बोले - स्वामिन् ! आप तो सब प्राणियों को कल्याण प्रदाता सुन्दर शिक्षा देकर तथा सब पर दया करके अपने नाम दादूदयालु को चरितार्थ करते ही रहते हैं । आपका अनुभव भी विचित्र ही है । अतः अब आप जिस प्रभु की भक्ति से प्राणी का कल्याण होता है, उस भक्ति के कितने भेद हैं ? यह बताने की कृपा अवश्य करें ।
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अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी बोले - भक्ति के मुख्य तीन भेद हैं -
१. नवधा २. प्रेमा और ३. परा ।
इनको क्रम से कनिष्ठा, मध्यमा और उत्तमा भी कहते हैं । कनिष्ठा भक्ति नव प्रकार की होती है, इससे उसे नवधा भी कहते हैं तथा नवधा में विधि-विधान होने से इसे वैधी भी कहते हैं । उपास्य भेद से सगुण भक्ति तथा निर्गुण ये दो भेद और हो जाते हैं । सगुण साकार की भक्ति को सगुण भक्ति कहते हैं । निर्गुण निराकार की भक्ति को निर्गुण-भक्ति कहते हैं ।
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अब प्रथम मन लगा कर नवधा भक्ति सुनो, उसके नवभेद ये हैं -
१. श्रवण, २. कीर्तन, ३. स्मरण, ४. पाद सेवन, ५. अर्चन, ६. वंदन, ७. दास्य, ८. सख्य, और ९. आत्म निवेदन ।
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*१. श्रवण* - एकाग्र मन से परमात्मा के गुण, चरित्र, ज्ञान, सामर्थ्य और पवित्र नामों को श्रद्धा भक्ति से सुनकर हृदय में धारण करने को श्रवण भक्ति कहते हैं । उक्त सबके श्रवण करने से ऐसी तीव्र इच्छा होनी चाहिए -
"दादू जैसे श्रवण दोय हैं, ऐसे हौंय अपार ।
राम कथा रस पीजिये, दादू बारंबार ॥"
इस भक्ति के करने वालों में मुख्य भक्त राजर्षि परीक्षित माने जाते हैं । उन्होंने शुकदेव मुनि से एकाग्र मन करके उक्त सब बातों को सुना था, वैसे ही सबको सुनना चाहिये । विधि युक्त कार्य करने से पूर्ण लाभ होता है ।
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२. कीर्तन भक्ति - परमात्मा के गुण, चरित्र, ज्ञान, सामर्थ्य, स्तुति और नामों को उच्चस्वर से गाकर के परमात्मा को प्रसन्न करने तथा कथा सुनाकर प्राणियों को पवित्र करने को कीर्तन भक्ति कहते हैं । इसमें सभी का अधिकार है । इसे सप्रेम करने से परमात्मा प्रसन्न होते हैं किंतु कीर्तनकर्ता की ऐसी तीव्र इच्छा होनी चाहिये -
"दादू श्रोता सनेही राम का, सो मुझे मिलावो आण ।
तिस आगे हरि गुण कथूं, सुनत न कर ही काण ॥"
कीर्तन भक्ति के दो भेद हैं - कथा करना और गाना । इसके मुख्य भक्त नारद और शुकदेव मुनि कहे जाते हैं ।
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३. स्मरण भक्ति - मन में ध्येय ब्रह्म का ध्यान हो और जिह्वा से अच्छी प्रकार नाम का उच्चारण होता रहे । उक्त ध्यान और नाम उच्चारण नियम प्रेम पूर्वक प्रति पल होता रहे. इसी को स्मरण भक्ति कहते हैं । विज्ञजन स्मरण के तीन भेद बताया करते हैं - १ - - साधारण, २ - - उपांशु, ३ - - मानस । जिह्वा से मंद उच्चारण को साधारण स्मरण कहते हैं । कंठ में स्थित नाड़ी की गति के साथ नाम चिन्तन करने को उपांशु कहते हैं और मन से करने को मानस कहते हैं । ये तीनों क्रम से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होते हैं । अमावस्या और पूर्णिमा को किये जाने वाले विधि-यज्ञ से दशगुणा अधिक फल साधारण जप का होता है । साधारण से सौ गुणा अधिक फल उपांशु का होता है और उपांशु से हजार गुणा अधिक फल मानस का होता है । स्मरण भक्ति दृढ़ता से सदा ही करना चाहिये -
"एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाय ।
राम नाम छाड़े नहीं, दूजा आवे जाय ॥"
स्मरण भक्ति के मुख्य भक्त प्रहलाद कहे जाते हैं । उन्होंने नाम चिन्तन की प्रतीज्ञा अति दृढ़ता से धारण की थी । तब ही तो वे अग्नि में नहीं जले थे, जल में नहीं डूबे थे, स्थल पर दिये जाने वाले दंड भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके थे । अंत में स्तंभ से प्रकट होकर प्रभु ने उनकी रक्षा की थी, विरोधी पिता को मारा था ।
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४. पादसेवन भक्ति - - स्मरण भक्ति के सहित उपास्य के चरण कमलों का चिन्तन करना, अपने मस्तक पर चरण रज धारण करना, अपने उपास्य से भिन्न को श्रेष्ठ नहीं मानना, उक्त प्रकार चरण सेवा को ही पादसेवन भक्ति कहते हैं । पादसेवन भक्ति वाले भक्त में ऐसी भावना अवश्य रहनी ही चाहिये -
"मस्तक मेरे पाँव धरि, मंदिर मांहीं आव ।
सइयाँ सोवे सेज पर, दादू चंपै पाव ॥"
पादसेवन भक्ति की मुख्य भक्त लक्ष्मीजी मानी जाती हैं ।
(क्रमशः)
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