रविवार, 29 नवंबर 2015

= ५९ =


卐 सत्यराम सा 卐
केते पारिख जौहरी, पंडित ज्ञाता ध्यान ।
जाण्या जाइ न जाणिए, का कहि कथिये ज्ञान ॥ 
केते पारिख पच मुये, कीमत कही न जाइ ।
दादू सब हैरान हैं, गूँगे का गुड़ खाइ ॥ 
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साभार ~ कमल हिन्दू ~ ईश्वर कहाँ हैं? 
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कबीर ने कहा था :- 
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास रे, 
ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश रे
सच ही कहा था उन्होंने, हर इंसान में ईश्वर का वास है, फिर भी नज़ाने क्यूँ लोग लाशों पर कदम रख कर चले हैं ईश्वर ढूंढने..........!
ईश्वर को जो किसी विषय या वस्तु की भांति खोजते हैं, वो ना-समझ हैं। वह वस्तु नहीं है। वह तो आलोक, आनंद और आत्मा की चरम अनुभूति का नाम है। वह व्यक्ति भी नहीं है कि उसे कहीं बाहर पाया जा सके। वह तो स्वयं की चेतना का ही आत्यांतिक परिष्कार है।।
एक संत से किसी ने पूछा, ईश्वर है, तो दिखाई क्यों नहीं देता?”
उस संत ने कहा, ईश्वर कोई वस्तु नहीं है, वह तो अनुभूति है। उसे देखने का कोई उपाय नहीं, हां, अनुभव करने का अवश्य है।”
किंतु, वह जिज्ञासु संतुष्ट नहीं दिखाई दिया। उसकी आंखों में प्रश्न वैसा का वैसा ही खड़ा था। तब संत ने पास में ही पड़ा एक बड़ा पत्थर उठाया और अपने पैर पर पटक लिया। उसके पैर को गहरी चोट पहुंची और उससे रक्त-धार बहने लगी।
वह व्यक्ति बोला, यह आपने क्या किया? इससे तो बहुत पीड़ा होगी? यह कैसा पागलपन?”
वह संत हंसने लगा और बोला, पीड़ा दीखती नहीं, फिर भी है। प्रेम दिखता नहीं, फिर भी होता है। ऐसा ही ईश्वर भी है।”
जीवन में जो दिखाई पड़ता है, उसकी ही नहीं- उसकी भी सत्ता है, जो कि दिखाई नहीं पड़ता है। और, दृश्य से अदृश्य की सत्ता बहुत गहरी है, क्योंकि उसे अनुभव करने को स्वयं के प्राणों की गहराई में उतरना आवश्यक होता है। तभी वह ग्रहणशीलता उपलब्ध होती है, जो कि उसे स्पर्श और प्रत्यक्ष कर सके। साधारण आंखें नहीं, उसे जानने को तो अनुभूति की गहरी संवेदनशीलता पानी होती है। तभी उसका आविष्कार होता है। और, तभी ज्ञात होता है कि वह बाहर नहीं है कि उसे देखा जा सकता, वह तो भीतर है, वह तो देखने वाले में ही छिपा है।
ईश्वर को खोजना नहीं, खोदना होता है। स्वयं में ही जो खोदते चले जाते हैं, वे अंतत: उसे अपनी सत्ता के मूल-स्रोत और चरम विकास की भांति अनुभव करते हैं। 
(साभार महंत रामजी दास जी संतोषी अखाडा चित्रकूट)

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