बुधवार, 30 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१७)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*माइ बाप तजि घी उमदानी,*
*हरखत चली खसम के पास ।* 
*बहू बिचारी वड बषतावरि,*
*जाके कहै चलत है सास ।*
*भाई खरौ भलौ हितकारी,*
*सब कुटुंब काउ कीयौ नास ।* 
*अैसी विधि घर वस्यौ हमारौ,*
*कहि समुंझावै सुन्दरदास ॥१७॥*  
{यहाँ तक दोनों हस्तलिखित टीकाओं के मिलान से यह निश्चय हो गया है कि इनमें भेद नहीं है । अतः अब आगे दोनों को मिला दिया गया - सं.} 
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*= ह० लि० १,२ टीका =* 
माइ, माया ताको जो ममतास अरु बाप नाम बप शरीर ताका सुखन को अभ्यास तिन सबन को छांडिकै जो याही शरीर में उपजी जो शुद्ध-बुद्धि सो उमदानी सो हरषयुक्त हुई थकी सो खसम नाम सर्वदा प्रतिपालनकर्त्ता परमात्मा पूर्णब्रह्म - पति ताकै संगि चली नाम ताही में लीन हुई । 
बहूबुद्धि बड़ी सभागणी सुलक्षणी शुभगुणयुक्त ता बुद्धि की प्रेरी सास नाम सुरति है सो चालै है ब्रह्मस्वरूप में लीन होवै है । 
या बुद्धि को सहाई भूत जो ब्रह्मभाव बातें वाका सकल कुटुंब नाम जो इन्द्रियां की वृति तिनको नाश कर्यो नाम सर्व दूरि निबारन करी । जो कुटुंब को नाश हुंवा घर उजड़ै(परन्तु) यो घर बस्यो ये ही विपर्यय । या प्रकार घर बस्यो । घर ब्रह्म तामें हमारो बास सिद्ध हुवे ॥१७॥
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*= पीताम्बरी टीका =*  
इहां अविद्या कूं माह(माता) कहै है । औ जीव कूं बाप(पिता) कहैं हैं । ताकूं तजि(त्याग करिके) कहिये अविद्या औ जीव का बाध करिके धी(तिनकी पुत्री) कहिये जो संस्कारवाली बुद्धि की वृत्ति है । सो उमदानी(मन्दोमत्त भई) कहिये ध्येयाकार होने लगी । औ प्रत्यक् अभिन्न जो परमात्मा है सोई मानौ खसम(पति है) । ताके पास कहिये तदाकार होने कूं हरषत चली अर्थात् परमात्माकूं अभिमुख भई । 
विवेक - रहित जो बुद्धि है सोई मानौ सास(सासू) है । काहेतें विवेक की उत्पत्ति हुई है तातें सो तिसकी माता है । विवेकयुक्त बुद्धि को वृत्ति है । सोई मानौ तिस विवेक की बहु(स्त्री) है । सो बिचारी कहिये शांतिवाली है । औ बडि बख्तावरि कहिये स्वाधीन है । पराधीन नहीं है । यातें पूर्वोक्त सासू का कह्या नहीं मानैं है । किन्तु जाके कहे वो सास चलती है । अर्थात् विवेकयुक्त बुद्धि की वृत्ति में अविवेकता का प्रवेश होवै नहीं । 
पूर्वोक्त विवेक कूं सहायता करनेवाला जो तत्वज्ञान है । सोई मानौ भाई(भ्राता) है सो खरो कहिये निश्चित है । भलो कहिये श्रेष्ठ है । औ हितकारी कहिये मुक्तिरूप कल्याण कूं करने वालो है । तिसने अविद्या को औ ताके कार्य बुद्धिवृत्ति औ देहादि रूप सब कुटुंब को नास कीयो । कहिये बाध किया है । 
*सुन्दरदासजी कहि समुझावै हैं* कि ऐसी बिधि कहिये इस प्रकार करि हमारो स्वस्वरूप - घर बस्यो । अर्थात् सत् रूप करि अवशेष रह्यो ॥१७॥ 
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*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
सुन्दर समुझावै बहू, सुनि हे मेरी सास । 
माई बात तजि धी चली, अपने पिय के पास ॥२७॥  
(क्रमशः)

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