मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४५ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४५ दिन २७ =*
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*= नवधा भक्ति वर्णन =*
५. अर्चन भक्ति - शौच स्नानादि से शरीर को शुद्ध करके पवित्र आसन पर बैठे और चित्त को प्रबुद्ध करके उपास्य का ध्यान करे, फिर गुरु की बताई हुई रीति से पूजा करे । पूजा के प्राकृत साधन - धूप, दीप, पुष्प आदि के द्वारा पूजा पद्धति के अनुसार पूजा करके पीछे उपास्य की स्तुति करे यह बाह्य अर्चना है । इस बाह्य अर्चना रूप सगुण भक्ति के मुख्य भक्त राजा पृथुजी माने जाते हैं ।
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इसी प्रकार ध्यान में जैसी मूर्ति का दर्शन हुआ हो, उसको हृदय के अष्ट दल कमल पर विराजमान करके मानस उपचारों से पूजा करे अर्थात् भाव मय साधनों से ही पूजे, प्रीति रूप पुष्प, ध्यान रूप धूप, ज्ञान रूप दीपक इत्यादिक सब भाव मय साधनों से पूजा करे, उसे आंतर पूजा कहते हैं । और निर्गुण उपासक संतों की आरती आदि इस प्रकार होती हैं -
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इहिं विधि आरती राम की कीजे, आत्मा आंतर वारणा लीजे ॥टेक॥
तन मन चंदन प्रेम की माला, अनहद घंटा दीन दयाला ॥१॥
ज्ञान का दीपक पवन की बाती, देव निरंजन पांचों पाती ॥२॥
आनन्द मंगल भाव की सेवा, मनसा मंदिर आतम देवा ॥३॥
भक्ति निरंतर मैं बलिहारी, दादू न जाने सेवा तुम्हारी ॥४॥
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देव निरंजन पूजिये, पाती पंच चढाय ।
तन मन चन्दन चरचिये, सेवा सुरति लगाय ॥
आतम माहीं राम है, पूजा ताकी होय ।
सेवा वंदन आरती, साधू करैं सब कोय ॥
उक्त प्रकार निर्गुण ब्रह्म के उपासक संत अर्चन भक्ति करते हैं ।
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६. वंदन - उपास्यदेव को शरीर से दंड के समान पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग प्रणाम करना, वचन से प्रणाम शब्द बोलते हुये चरण छूना, मन से अति प्रेम करके नेत्रों द्वारा दर्शन-रूप रस का पान करना । इसी को वन्दना भक्ति कहते हैं । यह कह कर फिर बोले -
"परब्रह्म परात्परं, सो मम देव निरंजनं,
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वंदनं ॥"
जब कंस ने अक्रूरजी को गोकुल में भेजा था तब अक्रूर ने कृष्ण की वन्दना करना रूप भक्ति बहुत अच्छी की थी । इससे वन्दना भक्ति के मुख्य भक्त अक्रूरजी माने जाते हैं ।
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७. दास्य भक्ति - सदा भयभीत के समान हाथ जोड़े हुये स्वामी के सन्मुख स्थित रहे, और स्वामी से कहे - प्रभो ! मुझे क्या आज्ञा है ? स्वानी के वचनों के अनुसार ही सब व्यवहार करे, अपनी मनोवृत्ति को स्वामी के वचनों से बाहर एल पल भी नहीं जाने दे । स्वामी के लिये सब कुछ सहन करे । यही दास्य भक्ति है । केवल दास नाम रखने से ही दास्य भक्ति नहीं होती है -
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"नाम धरावे दास का, दासा तन तैं दूर ।
दादू कारज क्यों सरे, हरि से नहीं हजूर ॥
दादू जब लग राम है, तब लग सेवक होय ।
अखंडित सेवा एक रस, दादू सेवक सोय ॥"
दास्य भक्ति के मुख्य भक्त हनुमान जी माने जाते हैं । उन्होंने इस दास्यत्व का अच्छा परिचय दिया है । वे रामजी की सेवा में सदा सावधान रहते थे ।
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८. सख्य भक्ति - जैसे मित्र अपने प्रियमित्र का संग नहीं त्यागता, वैसे ही आत्मा परमानन्दप्रद परमात्मा के विचित्र संग को नहीं त्यागे । उसी को सख्य भक्ति कहते हैं । यह सख्य भक्ति विशाल भाग्य से ही प्राप्त होती है । फिर बोले-
"मित्र तुम्हारा तुम कने, तुम ही लेहु पिछान ।
दादू दूर न देखिये, प्रतिबिम्ब ज्यों जान ॥
जो सांई का हो रहै, सांई तिसका होय ।
दादू दूजी बात सब, भेष न पावे कोय ॥"
सख्य भक्ति के मुख्य भक्त तो अर्जुन ही माने जाते हैं किंतु सुग्रीव और सुदामा आदि ने भी सख्य भक्ति द्वारा ही लोक में सन्मान प्राप्त किया है ।
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९. आत्म निवेदन भक्ति - तन, मन, वचन, मति, अहंकार, धन, धाम, पुत्र, प्रिय, स्त्री, वाहन, दास, दासी आदि सब परिवार और आत्मा को भी प्रभु के समर्पण करना तथा ऐसी भावना होना - "मैं तेरा प्रेमी हूं, तेरा ही रूप हूँ, मेरे और तेरे में कुछ भी भेद नहीं है । एसी स्थिति को ही निवेदन भक्ति कहते हैं । फिर बोले -
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"तन भी तेरा मन भी तेरा, तेरा पिंड रु प्रान ।
सब कुछ तेरा तू है मेरा, यह दादू का ज्ञान ॥
जिसका है तिस को चढ़े, दादू ऊरण होय ।
पहले देवे सो भला, पीछे तो सब कोय ॥"
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इस आत्म निवेदन भक्ति के मुख्य भक्त राजा बलि माने जाते हैं किन्तु हरिश्चन्द्र, रतिदेव, शिवि, मयूरध्वज आदि भी इसी भक्ति के भक्त हुये हैं । उक्त प्रकार नवधा भक्ति का सामान्य परिचय देकर सत्संग का समय समाप्त हो जाने से दादूजी महाराज मौन हो गए । फिर अकबर ने कहा स्वामिन् ! आपने अति सुगम रीति से नवधा भक्ति हम लोगों को समझा दी है ।
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आप तो महान् संत हैं, आपका ज्ञान कोष अपार है । प्रतिदिन ही आप अद्भुत-अद्भुत उपदेश देकर हम लोगों को कृतार्थ करते रहते हैं । फिर अकबर ने उठकर दादूजी को प्रणाम करके राज भवन जाने की आज्ञा ली और बीरबल आदि के साथ चले गये । अन्य सब श्रोता भी अपने-अपने घरों को चले गये । दादूजी के शिष्य अपने दैनिक साधनों में लग गये ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन २७ विन्दु ४५ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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