मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

(३४. आश्चर्य को अंग=९)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
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*पिंड मैं है परि पिंड लिपै नहिं,* 
*पिंड परै पुनि त्यौं हि रहावै ।* 
*श्रोत्र मैं है परि श्रोत्र सुनै नहिं,* 
*दृष्टि मैं है परि दृष्टि न आवै ॥* 
*बुद्धि मैं है परि बुद्धि न जांनत,* 
*चित्त मैं है परि चित्त न पावै ॥* 
*शब्द मैं है परि शब्द थक्यौ कहि,* 
*शब्द हूं सुन्दर दूरि बतावै ॥९॥* 
*ब्रह्म अनिर्वचनीय* : इस ब्रह्म में एक बात और आश्चर्यजनक है । वह यह है कि यह देह में रहता हुआ भी देह में लिप्त नहीं है । जैसी देह की क्रिया होती है तदनुसार ही वह अपना व्यवहार बनाये रखता है । 
इसी तरह वह श्रोत्र में है, परन्तु श्रोत्र की तरह सुनता नहीं रहता । नेत्रों में भी है, परन्तु दिखायी नहीं देता । 
इसी प्रकार वह बुद्धि एवं चित्त में भी है, परन्तु न बुद्धि उसको जान पाती है, न मन उसको समझ पाता है । 
वह शब्द में भी है, परन्तु शब्द उस का वर्णन नहीं कर सकता । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं वह(ब्रह्म) शब्दों से भी वर्णनातीत(अनिवर्चनीय) है ॥९॥ 
(क्रमशः)

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