बुधवार, 30 दिसंबर 2015

पद. ४३२

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३२. दीप चन्दी ~
डरिये रे डरिये, देख देख पग धरिये । 
तारे तरिये, मारे मरिये, तातैं गर्व न करिये रे, डरिये ॥ टेक ॥
देवै लेवै, समर्थ दाता, सब कुछ छाजै रे । 
तारै मारै, गर्व निवारै, बैठा गाजै रे ॥ १ ॥ 
राखैं रहिये, बाहैं बहिये, अनत न लहिये रे । 
भानै घड़ै, संवारै आपै, ऐसा कहिये रे ॥ २ ॥ 
निकट बुलावै, दूर पठावै, सब बन आवै रे । 
पाके काचे, काचे पाके, ज्यूं मन भावै रे ॥ ३ ॥ 
पावक पाणी, पाणी पावक, कर दिखलावै रे । 
लोहा कंचन, कंचन लोहा, कहि समझावै रे ॥ ४ ॥ 
शशिहर सूर, सूर तैं शशिहर, परगट खेलै रे । 
धरती अंबर, अंबर धरती, दादू मेलै रे ॥ ५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर और भयानक कर्मों से डरने का निर्देश करते हैं कि हे मानव ! पाप कर्मों से और परमेश्‍वर से डरते रहना और पृथ्वी पर देख - देखकर अर्थात् विचार - विचार कर पैर रखना, निष्काम शुभ कर्मों में अपनी वृत्ति लगाना । जब परमेश्‍वर दया करके जिस जीव का उद्धार करते हैं, उसी का उद्धार होता है और वे मारें, तो जीव का मरण होता है । इसलिये गर्व रूप कर्मों का त्याग करके सदैव ईश्‍वर से डरते रहना चाहिये । वह परमेश्‍वर उदारवृत्ति हैं, परन्तु भक्तों को तारने और दुष्टों को मारने तथा गर्व नष्ट करने में समर्थ हैं । और फिर सदा हृदय में स्थिर रहकर सत् कर्मों की प्रेरणा रूप गर्जना करते रहते हैं । फिर सम्पूर्ण प्राणियों की भावना अनुसार फल देते हैं, क्योंकि वह समर्थ हैं जो भी करें, उनको सभी कुछ शोभा देता है । जब वह प्राणी को अपने स्वरूप में स्थिर रखें, तभी स्थिर रहता है और वह चलावें तो चलायमान हो जाता है । वह स्वयं समर्थ सबको कर्मानुसार उत्पन्न करते हैं और फिर नष्ट भी कर देते हैं । इस प्रकार संत अपनी वाणी द्वारा और सत् शास्त्र ऐसा ही कहते हैं । इसलिये उस समर्थ को ही उपास्यदेव अपनाओ और सब कल्पित देवी - देवों का त्याग क रिये । वह प्रभु ऐसे समर्थ हैं कि एक को समीप बुला लेते हैं और दूसरे को दूर भेज देते हैं, जैसे सनकादिकों को समीप बुला लिया और जय - विजय को दूर भेज दिया । उनसे सभी कुछ हो सकता है । और यदि उनके मन में भावे, तो वह कच्चे को पक्का और पक्के को कच्चा कर देते हैं, जैसे बनिये के लड़के कच्चे को पक्का कर दिया और तपस्वी पक्के को कच्चा कर दिया । क्षत्रिय - धर्म - युक्त महाराज अमरीष को अग्नि स्वभाव से जल रूप बना दिया और जल रूप दुर्वासा को अग्नि करके दिखा दिया । वह समर्थ लोहे रूप कुल वाले वाल्मीकि को कंचन रूप भक्त दिखा दिया और कंचन रूप ब्राह्मणों को भक्ति रहित लोहा रूप दिखाया पांडवों के राजसूय यज्ञ में । फिर सबको कहकर भक्ति और भक्त की महिमा समझाई । वह फिर सूर्य को चन्द्रमा और चन्द्रमा को सूर्य बना सकते हैं । वही सभी के अन्दर चैतन्य रूप से खेल रहे हैं । वह पृथ्वी को आकाश और आकाश को पृथ्वी रूप कर देते हैं अर्थात् आकाश की भाँति उदार वृत्ति वालों को पृथ्वी की तरह कठोर वृत्ति बना देते हैं और कठोर वृत्ति वालों को आकाश की भांति सबको अवकाश देने वाले उदार वृत्ति बना देते हैं । ऐसे वे हमारे समर्थ उपास्य देव हैं

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