रविवार, 10 जनवरी 2016

पद. ४४४

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/sq3orXTma6I
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४४४. दीपचन्दी ~
*तेरी आरती ए, जुग जुग जै जै कार ॥ टेक ॥* 
*जुग जुग आत्म राम, जुग जुग सेवा कीजिये ॥ १ ॥* 
*जुग जुग लंघे पार, जुग जुग जगपति को मिले ॥ २ ॥* 
*जुग जुग तारणहार, जुग जुग दरसन देखिये ॥ ३ ॥* 
*जुग जुग मंगलचार, जुग जुग दादू गाइये ॥ ४ ॥* 
(श्री प्राण उधारणहार)
इति राग धनाश्री सम्पूर्ण ॥ २८ ॥ पद ३० ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निरंजन राम की आरती की विधि बताते हुए आरती कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! उस निरंजन राम की आरती हम तो अन्तःकरण में ही, उनकी जय - जयकार ध्वनि सहित आराधना रूप आरती कर रहे हैं कि हे निरंजन देव राम आत्म - स्वरूप ! आपकी आरती आपके संत भक्त, निरन्तर हृदय में करते आ रहे हैं जुग - जुग में । हे प्रभु ! आप दीन दयालु भक्त वत्सल हैं । आप जीवात्मा के पास ही प्रतियुग में निजरूप होकर वास करते हैं । प्रतियुग में ही आपकी संत - भक्त भक्ति करते आ रहे हैं । हम भी आपके बारम्बार वारणै जाते हैं और आपकी आरती करते हैं । हे राम जी ! जुग - जुग में आपकी आरती करके ही प्राणी संसार - समुद्र से पार हुए हैं । और हे विश्‍वपति राम ! जुग - जुग में आपके भक्त आपकी आरती करके ही आपको मिले हैं । हे प्रभु ! आप जुग - जुग में अपने भक्तों को तारने के लिये तत्पर रहते हो । हे मुमुक्षुओं ! इस प्रकार निरंजन राम की आरती करके हम तो उनका हृदय में ही आत्म - रूप से साक्षात्कार रूप दर्शन कर रहे हैं । आप भी उस निरंजन आत्म - स्वरूप राम की निष्काम, निरन्तर आरती रूप भक्ति करके, जय - ध्वनि सहित अन्तर्मुख वृत्ति से ज्ञान - नेत्रों द्वारा दर्शन करिये । इस प्रकार ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि जो उपरोक्त प्रकार से निरंजन रूप राम की आरती करते हैं, उनके युग - युग में मंगलाचार होता रहता है । सम्पूर्ण दुःख, क्लेश नष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार भक्तजन बारम्बार जय जयकार ध्वनि करते रहते हैं ।
अथवा हे संतों ! इस प्रकार ब्रह्म - वाणी की आरती करिये कि हे ब्रह्म - वाणी ! तेरी यही आरती है कि आपके संत भक्त जुग - जुग में आपकी जय - जयकार करते रहते हैं । हे ब्रह्म - वाणी ! आपके द्वारा ही जुग - जुग में जीवात्मा राम रूप होते हैं । हे गुरु वाणी ! जुग - जुग में ही आपकी आराधना रूप सेवा संतजन करते आये हैं और जुग - जुग में आपके द्वारा ही संतजन संसार - समुद्र से पार उतरे हैं । जुग - जुग में ही जगतपति परब्रह्म से आप संत भक्तों को मिलाती हो । हे गुरु - वाणी ! आपकी आरती करके ही जुग - जुग में आत्म - स्वरूप परब्रह्म का संतजन दर्शन करते हैं । इस प्रकार गुरु - वाणी की आरती गाने वाले संत भक्तों के हृदय में सदैव मंगलाचार बना रहता है । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव महाराज कहते हैं कि हे संतों ! उपरोक्त प्रकार से ब्रह्म - वाणी की आरती गाकर अपना आत्म - कल्याण करो । बोलिये, “श्री दादू दयाल महाराज की जय । गुरु - वाणी की जय । दयाल - वाणी की जय । वक्ता श्रोताओं की जय ।”
इति राग धनाश्री टीका सहित सम्पूर्णः ॥ २८ ॥ पद ३० ॥ 
*अनन्त विभूषित श्री ब्रह्मऋषि जगद् गुरु श्री दादू दयाल महाराज की अनुभव, श्री दयाल वाणी के उत्तरार्ध भाग की दृष्टान्तों सहित सजीवनी टीका सम्पूर्ण ।*
*“दादू दीन दयाल की, वाणी सागर रूप ।* 
*पंडित भूरादास ने, टिप्पणी करी अनूप ॥”*
मिती आसोज, कृष्ण पक्ष ॥ तिथि चौदस ॥ सोमवार ॥ संवत २०२० को श्री दादू आश्रम में वाणी जी की टीका सम्पूर्ण की ॥ रेनवाल किशनगढ़ ॥ 
श्री दयाल वाणी को बांचै विचारै, 
उन प्रेमी संत भक्तों को मेरा सत्यराम ॥ इति ॥ 

ॐ शान्तिः! शान्तिः ! शान्तिः !

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