बुधवार, 13 जनवरी 2016

= १७२ =

卐 सत्यराम सा 卐
ऐन बैन चैन होवै, सुणतां सुख लागै रे ।
तीन गुण त्रिविधि तिमिर, भरम करम भागै रे ॥ टेक ॥
होइ प्रकास अति उजास, परम तत्व सूझै ।
परम सार निर्विकार, विरला कोई बूझै ॥ १ ॥
परम थान सुख निधान, परम शून्य खेलै ।
सहज भाइ सुख समाइ, जीव ब्रह्म मेलै ॥ २ ॥
अगम निगम होइ सुगम, दुस्तर तिर आवै ।
आदि पुरुष दरस परस, दादू सो पावै ॥ ३ ॥
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साभार ~ Pannalal Ranga ~ ·

एक परमहंस, ‘तोतापुरी’ गुजरते थे, रामकृष्ण ने उन्हें रोक लिया और कहा, मुझे एक के दर्शन करा दें। तोतापुरी ने कहा, यह कौन—सी कठिन बात है? दो मानते हो, इसलिए दो हैं। मान्यता छोड़ दो! पर रामकृष्ण ने कहा, मान्यता छोड़नी बड़ी कठिन है। जन्म भर उसे साधा। आंख बंद करता हूं काली की प्रतिमा खड़ी हो जाती है। रस में डूब जाता हूं। भूल ही जाता हूं कि एक होना है। आंख बंद करते ही दो हो जाता हूं। ध्यान करने की चेष्टा करता हूं द्वैत हो जाता है। मुझे उबासे!

तो तोतापुरी ने कहा, ऐसा करो जब काली की प्रतिमा बने तो उठाना एक तलवार और दो टुकडे कर देना। रामकृष्ण ने कहा, तलवार वहां कहां से लाऊंगा?

तो जो तोतापुरी ने कहा, वही अष्टावक्र का वचन है। तोतापुरी ने कहा, यह काली की प्रतिमा कहां से ले आये हो? वहीं से तलवार भी ले आना। यह भी कल्पना है। इसे भी कल्पना से सजाया— संवारा है। जीवन भर साधा है। जीवन भर पुनरुक्त किया है, तो प्रगाढ़ हो गई है। यह कल्पना ही है। सभी को आंख बंद करके काली तो नहीं आती।

रामकृष्ण ने काली को साधा है तो कल्पना प्रगाढ़ हो गई है। बार—बार पुनरुक्ति से, निरंतर—निरंतर स्मरण से कल्पना इतनी यथार्थ हो गई है कि अब लगता है काली सामने खड़ी है। कोई वहां खड़ा नहीं। चैतन्य अकेला है। यहां कोई दया नहीं है, दूसरा नहीं है।

तुम आंख करो बद—तोतापुरी ने कहा—उठाओ तलवार और तोड़ दो।

रामकृष्ण आंख बंद करते, लेकिन आंख बंद करते ही हिम्मत खो जाती : तलवार उठाये, काली को तोड़ने को! भक्त भगवान को काटने को तलवार उठाये, यह बड़ी कठिन बात है!

संसार छोड़ना बड़ा सरल है। संसार में पकड़ने योग्य ही क्या है? लेकिन जब मन की किसी गहन कल्पना को खड़ाकर लिया हो, मन का कोई काव्य जब निर्मित हो गया हो, मन का स्वप्न जब साकार हो गया हो, तो छोड़ना बड़ा कठिन है। संसार तो दुख—स्वप्न जैसा है। भक्ति के स्वप्न, भाव के स्वप्न दुख—स्वप्न नहीं हैं, बड़े सुखद स्वप्न हैं। उन्हें छोड़े कैसे, तोड़े कैसे?

आंख से आंसू बहने लगते। गदगद हो जाते। शरीर कंपने लगता। मगर वह तलवार न उठती। तलवार की याद ही भूल जाती। आखिर तोतापुरी ने कहा, बहुत हो गया कई दिन बैठकर। ऐसे न चलेगा। या तो तुम करो या मैं जाता हूं। मेरा समय खराब मत करो। यह खेल बहुत हो गया।

तोतापुरी उस दिन एक कांच का टुकड़ा ले आया। और उसने कहा कि जब तुम मगन होने लगोगे, तब मैं तुम्हारे माथे को कांच के टुकड़े से काट दूंगा। जब मैं यहां तुम्हारा माथा काटूं तो भीतर एक दफा हिम्मत करके उठा लेना तलवार और कर देना दो टुकड़े। बस यह आखिरी है, फिर मैं न रुकूंगा। तोतापुरी की धमकी जाने की, और फिर वैसा गुरु खोजना मुश्किल होता! तोतापुरी अष्टावक्र जैसा आदमी रहा होगा। जब रामकृष्ण आंख बंद किये, काली की प्रतिमा उभरी और वे मगन होने को ही थे, आंख से आंसू बहने को ही थे, उद्रेक हो रहा था, उमंग आ रही थी, रोमांच होने को ही था, कि तोतापुरी ने लिया माथे पर जहां आज्ञा—चक्र है, वहां लेकर ऊपर से नीचे तक कांच के टुकड़े से माथा काट दिया। खून की धार बह गई। हिम्मत उस वक्त भीतर रामकृष्ण ने भी जुटा ली। उठा ली तलवार, दो टुकड़े कर दिये काली के। काली वहां गिरी कि अद्वैत हो गया, कि लहर खो गई सागर में, कि सरिता उतर गई सागर में। फिर तो कहते हैं, छह दिन उस परम शून्य में डूबे रहे। न भूख रही न प्यास; न बाहर की सुध रही न बुध, सब भूल गये। और जब छह दिन के बाद आंख खोली तो जो पहला वचन कहा वह यही—आखिरी बाधा गिर गई! द लास्ट बैरियर हैज फालन।

यह पहला सूत्र कहता है : हे पुत्र! तू बहुत काल से देहाभिमान के पाश में बंधा हुआ, उस पाश को ही अपना अस्तित्व मानने लगा है।

मैं देह हूं! मैं देह हूं!! मैं देह हूं!!! —ऐसा जन्मों—जन्मों तक दोहराया है; दोहराने के कारण हम देह हो गये हैं। देह हम हैं नहीं; यह हमारा अभ्यास है। यह हमारा अभ्यास है, यह हमारा आत्म— सम्मोहन है। हमने इतनी प्रगाढ़ता से माना है कि हम हो गये हैं।

नमन

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