गुरुवार, 14 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६१ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६१ =*
*= करोली पंचम विश्राम, करोली नरेश गोपालदास का दादूजी के पास आना =* 
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अपने पूर्व संकल्प के अनुसार करोली के राजा गोपालदास दूसरे दिन दादूजी के दर्शन करने जहां वन में दादूजी ठहरे हुये थे, वहां आया । पास में जाकर अतिश्रद्धा भक्ति से साष्टांग प्रणाम करके सन्मुख बैठ गया और अवसर पाकर हाथ जोड़कर प्रश्न किया - भगवन् ! आपका पंथ कौन है ? राजा का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज यह पद बोले -
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*= करोली नरेश को उपदेश =*
"भाई रे ऐसा पंथ हमारा,
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा, अवरण एक अधारा ॥टेक॥
वाद विवाद काहू से नांहीं, मांहिं जगत तैं न्यारा ।
सम दृष्टि स्वभाव सहज में, आपहि आप विचारा ॥१॥
मैं तैं मेरी यहु मति नांहीं, निर्वेरी निरकारा ।
पूरण सबहि देख आपा पर, निरालम्ब निरधारा ॥२॥
काहू के सँग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा ।
मन ही मन से समझ सयाना, आनंद एक अपारा ॥३॥
काम कल्पना कदे न कीजे, पूरण ब्रह्म पियारा ।
इहिं पथ पहुँच पार गह दादू, सो तत सहज संभारा ॥४॥
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हे भाई ! हमारा पंथ तो ऐसा है - उसमें एक ब्रह्म का ही आधार रहता है, हिन्दू-मुसलमानपना आदि द्वैत पक्ष नहीं होता है । न वर्ण विभाग ही है । उसको जो ग्रहण करता है, वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त होकर स्वयं भी पूर्ण हो जाता है ।
उसमें किसी से वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं रहती है । उसका पथिक् जगत में रहकर भी जगत् से अलग ही रहता है । सहज स्वभाव ही उसमें समदृष्टि रहती है तथा अपने आप ही आत्मस्वरूप का विचार रहता है ।
"मैं, तू, मेरी, तेरी ।" यह भेद बुद्धि उसमें नहीं रहती । वह सबसे निर्वैर होकर, अपने पराये सब में निरकार, निरालम्ब पूर्णब्रह्म को निश्चय पूर्वक देखकर सम हो जाता है ।
किसी के साथ मोह ममता नहीं करता है । परमात्मा को ही अपना साथी समझता है तथा वह बुद्धिमान् विचार द्वारा अपने मन ही मन में समझकर अपार अद्वैतानन्द को प्राप्त होता है ।
अतः सांसारिक कामनायुक्त कल्पना कभी भी मत करो और इस उक्त मार्ग के द्वारा संसार के पार पहुँचकर परमप्रिय पूर्णब्रह्म को अद्वैतात्मरूप से ग्रहण करो । वही परब्रह्म तत्त्व हमने सहज समाधि में देखा है ।
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दादूजी के उक्त उत्तर को सुनकर करोली नरेश ने पुनः प्रश्न किया - आप किस देव की पूजा(उपासना) करते हो ? और जिस देव के समान अन्य कोई भी देव नहीं हो और जो सब देवों से महान् हो, ऐसा कौन देवता है, सो भी बताइये ।
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राजा का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी ने यह पद बोला -
"सोई देव पूजूं, जो टांची नहिं घड़िया, गर्भवास नाहीं अवतरिया ॥टेक॥
बिन जल संयम सदा सोइ देवा, भाव भक्ति करूं हरि सेवा ॥१॥
पाती प्राण हरि देव चढ़ाऊं, सहज समाधि प्रेम ल्यौ लाऊं ॥२॥
इही विधि सेवा सदा तहँ होई, अलख निरंजन लखे न कोई ॥३॥
यह पूजा मेरे मन माने, जिहिं विधि होइ सु दादू न जाने ॥४॥"
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मैं उसी उपास्य देव की पूजा करता हूं जो टांची से नहीं घड़ा गया है, गर्भवास के द्वारा अवतार नहीं लिया है ।
जिनका बिना जल ही स्नान होता है तथा सदा संयम बना रहता है, वही मेरा उपास्य देव है । उन हरि की श्रद्धा भक्ति द्वारा ही मैं पूजा करता हूं ।
उन मेरे उपास्य देव हरि के प्राणरूप तुलसीदल चढ़ाता हूँ । प्रेम पूर्वक उनमें वृत्ति लगाकर सहज समाधि द्वारा उनके पास रहता हूँ ।
इस प्रकार मेरे हृदय में सदा सेवा पूजा होती रहती है । वे मेरे उपास्यदेव अलख और निरंजन हैं, उन्हें चर्म चक्षुओं से कोई भी नहीं देख सकता है ।
मेरे मन को यह उक्त प्रकार की पूजा करनी अच्छी लगती है किन्तु उन देव की पूजा जिस प्रकार होनी चाहिये व जिस प्रकार करने से उन्हें प्रिय लगे सो तो वे ही जानते हैं, मैं नहीं जानता ।
(क्रमशः)


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