शनिवार, 23 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/२५-७)


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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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दादू बाहर सारा देखिये, भीतर कीया चूर ।
सद्गुरु शब्दों मारिया, जाण न पावे दूर ॥२५॥
साधक में शरीर - निर्वाह रूप खान - पानादि बाहर का सभी व्यवहार तो देखा जाता है किन्तु सद्गुरु दया करके मन के भीतर भोग - वासनादि को नाश कर देते हैं । मेरे मन को भी सद्गुरु ने अपने शब्द बाणों से मार दिया है अर्थात् साँसारिक वासना से रहित कर दिया है । अब मेरा मन परमात्मा से दूर नहीं जा सकता ।
दादू सद्गुरु मारे शब्द से, निरख निरख निज ठौर ।
राम अकेला रह गया, चित्त न आये और ॥२६॥
सद्गुरु ने, आत्म - स्थिति रूप निज धाम की प्राप्ति में बाधक, काम क्रोधादि को भली भाँति देख - देखकर अपने शब्द - बाणों से मार दिया है । वस्तु - विचार से काम, क्षमा से क्रोध, सँतोष से लोभ और ज्ञान से मोह को मार दिया है । अब चित्त में अन्य कुछ भी नहीं आता, केवल एक राम का चिन्तन ही रह गया है ।
दादू हम को सुख भया, साधु१ शब्द गुरुज्ञान ।
सुधि बुधि सोधी समझकर, पाया पद निर्वान ॥२७॥
परमार्थ के प्रतिपादक गुरु के श्रेष्ठ१ शब्दों के ज्ञान से हमको महान् आनँद प्राप्त हुआ है । उनके उपदेश के अनुसार भगवान् का स्मरण करने से हमारी बुद्धि शुद्ध हो गई । उस शुद्ध बुद्धि से विचार - पूर्वक स्वरूप को समझकर हमने काल - कर्म के बाणाघात से रहित ब्रह्म - पद प्राप्त किया है ।
(क्रमशः)

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