卐 सत्यराम सा 卐
मन के मतै सब कोई खेलै, गुरु मुख बिरला कोई ।
दादू मन की मानैं नहीं, सतगुरु का सिष सोइ ॥
दादू भक्त कहावैं आपको, भक्ति न जानैं भेव ।
सुपनै ही समझैं नहीं, कहाँ बसै गुरुदेव ॥
==========================
साभार ~ Madhusudan Murari ~
सत्य को स्वंय से अधिक और कहीं भी नहीं पाया जा सकता।
स्वंय के संग की अद्भुत पराकाष्ठा को छुने वाले ही वास्तविक सत्संगी होते हैं। तत्वज्ञान के झूठे पुरोधा अवश्य ही पंचतत्वोँ का अपमान करते हैं। ये ऐसा ही है जैसे इंद्रियोँ का दमन करके कोई ईश्वर प्राप्ति की कुचेष्टा करे जो की दंम्भ की श्रेणी में आता है, पाखंड की श्रेणी में आता है।
वास्तविक सत्संग प्रेमी इस पोँगापंथी को क्षण भर में पहचान लेते हैँ क्योँकि वे जानते हैं सत्संगी होना नपुसंको(मानसिक रूप से) का काम नहीं है जो सम्मोहन को ही सत्संग समझ लेते हैँ। अस्तित्व की अखंड और अंतिम माँग है सत्संग। पुरुषार्थ की अंतिम उत्कृष्ट अभिलाषा है सत्संग। ये अभिलाषा सभी में जाग्रत नहीं होती और जिस में भी जाग्रत होती है स्वत: जाग्रत होती है। इसी वजह से धर्म और अध्यात्म हमेँशा कलंकित होता आ रहा है। पूरी संभावना है कि आगे भी कलंकित होता रहेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें