मंगलवार, 29 मार्च 2016

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा मांहि ।
दादू सांई सब करै, कोई जानै नांहि ॥
दादू सेवक सांई वश किया, सौंप्या सब परिवार ।
तब साहिब सेवा करै, सेवक के दरबार ॥ 
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo

।। जय श्री राधे जय जगन्नाथ जय श्रीकृष्ण ।।
जगन्नाथस्वामी नयनपथगामी भवतुमे.....!!!
जगन्नाथजी का एकमात्र विग्रह ऐसा है की जो अतिप्राचीन है.....जिनके साथ कई संतों की कथायें जुडी हैं....!!
करमाबाई जाट की बेटी होकर भी उनके हाथ से भगवान प्रत्यक्ष प्रकट होकर खिचडी का भोग आरोगते थे.... और खिचडी का भोग पाने के लिये जगन्नाथजी ने उस माता करमाबाई को पुरी में बुला लिया था.......!!! जब वे वृध्द हो गई तो जिद करके कृष्ण-बलदाऊ करमा माता को बिना स्नान किये ही खिचडी बनाने को बाध्य करते.....!!! पुजारियो ने जब भगवान की माता करमाबाई के खिचडी के प्रति ऐसी(दिव्य) आसक्ति देखी तो रसोईघर के पीछे उनके रहने की व्यवस्था कर दी....!!!
कारे मुसलमान भक्त था....जिसे लोगों ने सीढ़ियों पर रोका था(ईन्दिरा को भी रोका था)...... तो कारे ने कातर स्वर से पुकारा.....
"कारे करारपर खडा तेरे दरबार विच।
अटकी हैं नाव अब तो जरा गौर किजिये।
हिंदुओं का नाथ तो हमारा कुछ दावा नहीं।
जगतका नाथ हौ अब तो सुध लिजिये।।"
तब तुरंत जगन्नाथजीने कारेको सीढ़ियों पर दर्शन दिये....!!
माधवदासबाबा को अतिसार हुआ था तो टट्टीमें लथपथ रहते थे..... कोई सेवा न करता...... तब भगवान ने प्रत्यक्ष होकर बहोत मना करने पर भी उनके शौच के वस्त्र धोना, स्नान कराना आदि किया...!! माधवदासजी ने बहोत प्रार्थना की शरीर पुरा करने की.... तब भगवान ने उनका १५ दिन का प्रारब्ध अपने उपर लिया....!!! तबसे हर साल १५ दिन दर्शन बंद होता है... कोई भोग नहीं लगता..... केवल दवा...!!!! ऐसी जगन्नाथजी की लीलायें कई हैं....!!! जयदेवजी के गीत-गोविंद के श्रीराधागोविंदजी के शृँगार के पदगान सुनकर ही रसिकशिरोमणी जगन्नाथ जी शयन करते हैं....!!!

साभार ~ हरि हरि
श्री जगन्नाथ मंदिर पुरी मेँ ~ 
श्री जगन्नाथ जी की महत्वपूर्ण लीला नव कलेवर अनुष्ठान क्रिया होने जा रही है.... नवकलेवर यानी नया शरीर। इसमें विश्वविख्यात जगन्नाथ मंदिर में रखे भगवान जगन्नाथ, बालभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन की पुरानी मूर्ति को नई मूर्ति से बदला जाता है। इसका आयोजन तब होता है, जब हिंदू कैलेंडर में आषाढ़ के दो महीने होते हैं, जैसा कि इस साल हो रहा है। ऐसा संयोग 12 या 19 वर्षों में एक बार होता है। आखिरी नवकलेवर वर्ष 1996 में मनाया गया था। भगवान की नई मूर्तियां नीम की विशेष किस्म की लकड़ी से बनाई जाती है, इसे स्थानीय भाषा में दारु ब्रह्मा कहते हैं। इस समारोह में न सिर्फ मूर्तियां बदली जाती हैं बल्कि रहस्यमयी अनुष्ठान के जरिये 'ब्रहमा शक्ति' भी पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में स्थानांतरित की जाती है। 
इस प्रक्रिया की शुरुआत जगन्नाथ को दोपहर का भोग लगाने के बाद होती है। भगवान व उनके भाई-बहनों के लिए विशेष तौर पर 12 फुट की माला, जिसे धन्व माला कहते हैं, तैयार की जाती है। पूजा के बाद यह माला 'पति महापात्र परिवार' को सौंप दी जाती है, जो पुरी से 50 किलोमीटर दूर स्थित काकतपुर तक मूर्तियों के लिए लकड़ी खोजने वाले दल की अगुआई करते हैं। काकतपुर में मां मंगला का मंदिर है। वृक्षों की खोज पर निकला दल यात्रा के दौरान पुरी के पूर्व राजा के महल में रुकता है। सबसे बड़ा दैतापति(सेवक) मंदिर में ही सोता है और माना जाता है कि देवी उसके सपने में आकर उन नीम के वृक्षों की सही जगह की जानकारी देती हैं, जिनसे तीनों मूर्तियां बननी हैं।
ये कोई साधारण नीम के वृक्ष नहीं होते। चूंकि भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है, इसलिए जिस वृक्ष से उनकी मूर्ति बनाई जाएगी वह भी उसी रंग का होना चाहिए। हालांकि भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के रंग का नीम वृक्ष ढूंढा जाता है। जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाई जाएगी, उसकी कुछ खास पहचान होती है, जैसे उसमें चार प्रमुख शाखाएं होनी जरूरी हैं। ये शाखाएं नारायण की चार भुजाओं की प्रतीक होती हैं। वृक्ष के समीप ही जलाशय, श्मशान और चीटियों की बांबी हो यह बहुत जरूरी होता है। वृक्ष की जड़ में सांप का बिल होना चाहिए और वृक्ष की कोई भी शाखा टूटी या कटी हुई नहीं होनी चाहिए। वृक्ष चुनने की अनिवार्य शर्त होती है कि वह किसी तिराहे के पास हो या फिर तीन पहाड़ों से घिरा हुआ हो। उस वृक्ष पर कभी कोई लता नहीं उगी हो और उसके नजदीक ही वरुण, सहादा और बेल के वृक्ष हों(ये वृक्ष बहुत आम नहीं होते हैं)। और चिह्निïत नीम के वृक्ष के नजदीक शिव मंदिर होना भी जरूरी है। 
मूर्तियों के लिए नीम के वृक्षों की पहचान करने के बाद एक शुभ मुहुर्त में मंत्रों के उच्चारण के बीच उन्हें काटा जाता है। इसके बाद इन वृक्षों की लकडिय़ों को रथों पर रखकर दैतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं, जहां उन्हें तराशकर मूर्तियां बनाई जाती हैं। मूर्तियां बदलने का यह समारोह मशहूर रथ यात्रा से तीन दिन पहले होता है, जब 'ब्राह्मण' या पिंड को पुरानी मूर्तियों से निकालकर नई मूर्तियों में लगाया जाता है। मूर्तियां बदलना इतना आसान नहीं है और इसके लिए कड़े नियम होते हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। नियमानुसार मूर्तियां बदलने के लिए चुने गए दैतापतियों की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है, पिंड बदलने से पहले उनके हाथ कपड़े से बांध दिए जाते हैं और लकड़ी की खोज शुरू होने के पहले ही दिन से उन्हें बाल कटवाने, दाढ़ी बनाने या मूंछ कटाने की अनुमति नहीं होती है। मध्यरात्रि में दैतापति अपने कंधों पर पुरानी मूर्तियां लेकर जाते हैं और भोर से पहले उन्हें समाधिस्त कर दिया जाता है। यह ऐसी रस्म है, जिसे कोई देख नहीं सकता और अगर कोई देख ले तो उसका मरना तय होता है। इसी वजह से राज्य सरकार के आदेशानुसार इस रस्म के दौरान पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। अगले दिन नई मूर्तियों को 'रत्न सिंहासन' पर बैठाया जाता है.......
 जय श्री राधे जय जगन्नाथ जयश्रीकृष्ण 

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