मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू मन ही मरणा ऊपजै, मन ही मरणा खाइ ।
मन अविनासी ह्वै रह्या, साहिब सौं ल्यौ लाइ ॥ १३४ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विषयाकार बहिरंग मन से ही संसार का बन्धन रूप मरणा उत्पन्न होता है । जब मन परमेश्‍वर के सम्मुख होकर नाम - स्मरण में दत्त - चित्त होता है, तब यह मन, प्राण - पिण्ड के वियोग रूप मरणे को खा लेता है, फिर यह मन अविनाशी परमात्मा से लय लगा कर स्वयं अविनाशी हो जाता है ॥ १३४ ॥ 
एक एव मनो देवो ज्ञेय: सर्वार्थसिद्घिद: । 
अनेन विफल: क्लेश: सर्वेषां तत् जपं विना ॥ 

मन ही सन्मुख नूर है, मन ही सन्मुख तेज ।
मन ही सन्मुख ज्योति है, मन ही सन्मुख सेज ॥ १३५ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अन्तर्मुख मन के सन्मुख ही परमेश्‍वर, नूररूप, तेजरूप, ज्योतिरूप से प्रत्यक्ष हैं । फिर यह मन, शुद्ध हृदय रूपी सेज सँवार कर परमेश्‍वर के सन्मुख ओत - प्रोत भाव से अभेद हो जाता है ॥ १३५ ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)

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