शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

= विन्दु (२)७४ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७४ =*
*= जैता कायस्थ को उपदेश =*
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देवला ग्राम में एक दिन जैता कायस्थ दादूजी महाराज के दर्शन करने आया और सत्यराम प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये हितोपदेश की इच्छा से दादूजी के सामने बैठ गया । तब उसके मन की स्थिति जानकर परमयोगेश्वर दादूजी महाराज ने उसको इस पद से उपदेश किया -
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"डरिये रे डरिये, तातैं नाम चित धरिये ॥टेक॥
जिन ये पंच पसारे रे, मारे रे ते मारे रे ॥१॥
जिन ये पंच समेटे रे, भेटे रे ते भेटे रे ॥२॥
कच्छप ज्यों कर लिये रे, जीये रे ते जीये रे ॥३॥
भृंगी कीट समाना रे, ध्याना रे यहु ध्याना रे ॥४॥
अजा१ सिंह ज्यों रहिये रे, दादू दर्शन लहिये रे ॥५॥
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अरे भाई ! परमेश्वर से डरो, डरो, वे राम नाम चिन्तन से प्रसन्न होते हैं, इसलिए राम-नाम को चित्त में रक्खो । जिन लोगों ने इन पंच ज्ञानेन्द्रियों को विषयों में फैलाया है, वे बारंबार यमदूतों के द्वारा मारे गये हैं । और जिन्होंने विषयों में फैले हुए इन पांचों को एकत्र करके प्रभु के स्वरूप में लगाया है, वे प्रभु के चिन्तन द्वारा प्रतिक्षण प्रभु से मिल रहे हैं ।
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जैसे कछुआ भय से अपने अंगों को अपनी ढाल के नीचे ले आता है, वैसे ही जिन्होंने अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को आत्म परायण किया है, वे ब्रह्मरूप होकर प्रति युग जीवित रहे हैं । ब्रह्मरूप होने के लिए जैसे कीट भृंगी का ध्यान करता है, वैसे ही ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । यही ध्यान वास्तविक ध्यान है ।
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जैसे दो सिंहों के पिंजरों के बीच बकरी१ बाँध दी जाय और उसे खाने-पीने को भी खूब दिया जाय तो भी वह सिंहों के भय से भीत रहने से स्थूल नहीं होती है, वैसे ही काल और भगवान् के भय से युक्त होकर जो भजन करता है, वह विषयों से नहीं फूलता और अन्त में भगवान् का दर्शन करके संसार दुःख से मुक्त हो जाता है ।
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उक्त उपदेश सुनकर जैता कायस्थ ने दादूजी को प्रणाम करके कहा - स्वामिन् ! आपका उपदेश यथार्थ है, हम लोग काल और भगवान् से भय नहीं करते हैं, तब ही हम से अनेक गलतियां हो जाती हैं । मेरा कार्य विशेष रूप से लिखने का होता है, उसमें मुझसे गलती हो ही जाती है । आपने तो मानों मेरी गलती प्रत्यक्ष देखकर ही उपदेश दिया हो, ऐसा ज्ञात होता है । इसमें असंभव भी क्या है ?
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महान् संत तो दूसरे के मन की स्थिति अपनी योगशक्ति से जान ही जाते हैं । स्वामिन् ! अब आगे मैं आपके उपदेशानुसार सदा भगवान् और काल से डरते हुये ही सब कार्य करूंगा । इन्द्रियों को विषयराग से हटाकर निरंतर प्रभु का भजन करने का पूर्ण प्रयत्न करूंगा । यह कहकर जेता ने सत्यराम बोलकर प्रणाम किया और दादूजी से आज्ञा मांगकर घर को लौट गया ।
(क्रमशः)

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