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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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= विन्दु ७४ =
*= देवले गमन =*
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उधर दादूजी महाराज शिष्यों के सहित देवले पहुँचे, तब दयालदासजी, ठाकुर वैरीसालजी, जैता कायस्थ, संतदासजी गुजराती, रामदासजी, माँगाजी आदि भक्तों ने दादूजी का महान् सत्कार किया । देवले ग्राम में उक्त सभी दादूजी के उपदेशानुसार ही निर्गुण भक्ति करते थे ।
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वैरीसालजी ठाकुर ने दादूजी महाराज के सहित सभी संतों की अच्छी सेवा की थी । फिर एक दिन दयालदासजी दादूजी महाराज को प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये सामने बैठ गये । दादूजी ने उनको सामने बैठे हुये देखकर उनके हृदय के भाव को जान लिया कि कुछ उपदेश सुनना चाहते हैं ।
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तब दादूजी ने उनके अधिकारानुसार यह पद बोला -
*= दयाल दासजी को उपदेश =*
"ऐसो अलख अनन्त अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा ॥टेक॥
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै ।
निर्गुण निकट सब रह्या समाइ, निश्चल सदा न आवे जाइ ॥१॥
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनन्त रहै निरधार ।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिपत नहिं पाप ॥२॥
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर भीतर नेड़ा न दूर ।
अकल आप कलै नहिं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई ॥३॥
अवरण आपैं अजर लेख, अगम अगाध रूप नहिं रेख ।
अविगत की गति लखी न जाय, दादू दीन ताहि चित लाय ॥४॥
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यह त्रिलोकी जिनका विस्तरित विराटरूप है, वे प्रभु ऐसे अनन्त अपार हैं कि उनका वास्तविक स्वरूप मन इन्द्रियों से नहीं देखा जाता । वे निर्मल हैं, सदा सहजावस्था रूप घर में रहते हैं, उनका पार कोई भी नहीं पाता है । वे निर्गुण हैं, सबके समीप और सबमें समाये हुये हैं, सदा निश्चल रहते हैं ।
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व्यापक होने से उनमें जाना-आना नहीं बनता । वे सृष्टि के आदि और अन्त में भी निश्चय पूर्वक अविनाशी तथा अपरंपार रूप से रहते हैं । वे स्वयं सदा पवित्र निरंतर कला भाग से रहित रहते हैं, पाप से लिपायमान नहीं होते । वे समर्थ सब में परिपूर्ण हैं, बाहर भीतर एक रस हैं, सब के आत्मस्वरूप होने से समीप या दूर नहीं कहे जा सकते ।
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वे स्वयं निराकार हैं, इससे कालादि कोई भी कोई भी उन्हें नष्ट नहीं कर सकते । माया रहित होकर भी सब के अन्तःकरण में आत्मरूप से स्थित हैं । उनका कोई रंग नहीं है । साधन बिना स्वयं ही जरा रहित है । लेख बद्ध नहीं हो सकते । अगम अगाध हैं, रूप रेखा राहित हैं ।
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जिन मन इन्द्रियों के अविषय प्रभु की सामर्थ्य अपार है, उनकी सीमा देखी नहीं जा सकती । मैं दीन तो उन पभु में चित्त लगाये रहता हूँ । तुमको भी निरंतर उन प्रभु में ही अपना मन लगाये रहना चाहिये । उक्त उपदेश सुनकर दयालदासजी ने अपने मन में निश्चय किया कि मेरे कर्तव्य का उपदेश गुरुदेव जी ने कर दिया है अब मैं गुरुदेव द्वारा निर्दिष्ट तत्त्व में ही निरंतर मन रखने का पूर्ण प्रयत्न करूंगा ।
(क्रमशः)

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