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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७५ =*
*= वाजींद को सचेत करना =*
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दादूजी महाराज के उक्त उपदेश को सुनकर वाजींद ने मस्तक नमाते हुये कहा - गुरुदेव ! आप यथार्थ ही कहते हैं । मैं भी आपके उपदेशानुसार ही सब में भगवत् तत्त्व और सब विशेषतायें भगवान् की ही देखने का यत्न करता हूँ किन्तु पूर्व व्यतीत हुये जीवन के संस्कार अर्थात् रईसी ठाट से रहे हुये जीवन के संस्कार प्रकट हो जाते हैं, उस समय आपके विचार उनके नीचे दब जाते हैं ।
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मैं राजा मानसिंह के बाग में गया था, वहाँ इस पुष्प को देखकर आपको दिखाने के लिये तोड़ लाया था, उस समय मन में आपके उक्त विचार प्रकट रूप में नहीं थे । यह मेरा प्रमाद है, इसके लिये मैं आप से क्षमा याचना करता हूँ और अब आगे मैं आपके उक्त विचारों को प्रत्येक वस्तु को देखते समय स्मरण रखने का पूर्ण प्रयत्न करूंगा की संसार की प्रत्येक वस्तु की विशेषता ईश्वर की ही विशेषता है ।
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ऐसा कहकर वाजींद ने दादूजी को साष्टाँग प्रणाम किया फिर दादूजी से आज्ञा माँगकर जहाँ रहते थे वहाँ चले गये । वाजींद उच्चकोटि के संत कवि हुये हैं । आपके अनेक ग्रंथ मिलते हैं । आपका अरिल छंद तो बहुत सुन्दर होता है ।
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वाजींदजी दादूजी के शिष्य होने के पश्चात् प्रायः आमेर में ही रहे हैं । दादूजी ने आमेर का निवास छोड़ दिया था तब भी वाजींद आमेर में ही रहते थे । हरिदासजी निरंजनी जब आमेर पधारे थे तब वे वाजींद से मिलने वाजींद के आश्रम पर गये थे ।
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उस समय का दोनों संतों का संवाद पद्य मय हुआ था, वह अति रोचक है किंतु उसका यहाँ प्रसंग नहीं है, इससे यहां नहीं लिखा गया है । वह 'दादू पंथ परिचय' ग्रंथ में देने का विचार है । वाजींद दादूजी के १०० विरक्त शिष्यों में हैं । दादूजी के ५२ शिष्य थामायती थे और १०० विरक्त थे । इस प्रकार १५२ शिष्य थे ।
(क्रमशः)
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