卐 सत्यराम सा 卐
सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोइ ।
सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥
राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।
अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo ~
***सद्यो मुक्ति व क्रम मुक्ति ***
वेदमार्ग के अनुसार योगी अपने साधन की योग्यता के अनुसार दो प्रकार की मुक्ति का अधिकारी होता हैं। सद्यो मुक्ति को पाकर वह सीधे सीधे भगवत् धाम को माने परमधाम को या विष्णुपद को प्राप्त कर फिर इस संसार में नहीं आता।
सद्यो मुक्ति के इच्छुक साधक को भगवान के स्थुल और सुक्ष्म रूप का ध्यान नित्य प्रति संध्या-वंदनादि के पश्चात करना चाहिए। भगवान के विराट रूप के ध्यान में समस्त ब्रह्मांड के 14 भुवनों की भगवान के शरीर में धारणा करनी पड़ती हैं। दूसरे सगुण ध्यान में भगवान के चतुर्भुज रूप की हृदय में धारणा की जाती हैं। भगवान के चरणकमलों से लेकर उनके मुस्कान युक्त मुख-कमल पर्यन्त समस्त अङ्गों की एक-एक करके बुध्दि के द्वारा धारणा करनी चाहिए। जैसे- जैसे बुध्दि शुध्द होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा । जब एक अङ्ग का ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दुसरे अङ्ग का ध्यान करना चाहिये ये विश्वेश्वर भगवान दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण-- सब कुछ इन्हीं का स्वरूप है। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय, तबतक साधक को नित्य-नैमित्यिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान् के उपर्युक्त स्थुल रूपका ही चिन्तन करना चाहिये।
जब योगी-पुरुष इस मनुष्य-लोक को छोड़ना चाहे, तब देश और काल में मन को न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसनसे बैठकर प्राणों को जीतकर मन से इन्द्रियों का संयम करे। तदनन्तर अपनी निर्मल बुध्दि से मनको नियमित करके मनके साथ बुध्दि को क्षेत्रग्य में और क्षेत्रग्य को अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्था में स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। वहाँ तीन गुणों का या महत्तत्त्व और प्रकृति का भी अस्तित्व नहीं है। सबका निषेध कर जिस भगवानके परम पूज्य स्वरूपका आलिंगन करके योगी अनन्य प्रेम से परिपूर्ण रहते हैं-- वही भगवान विष्णु का परम पद है।
इस परमपद को योगी ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके प्राप्त करते हैं।

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