बुधवार, 27 अप्रैल 2016

= ७२ =

卐 सत्यराम सा 卐
बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होइ ।
माया पट पड़दा दिया, तातैं लखै न कोइ ॥ 
मैं चाहूँ सो ना मिलै, साहिब का दीदार ।
दादू बाजी बहुत हैं, नाना रंग अपार ॥ 
हम चाहैं सो ना मिलै, और बहुतेरा आइ ।
दादू मन मानै नहीं, केता आवै जाइ ॥ 
बाजी मोहे जीव सब, हमको भुरकी बाहि ।
दादू कैसी कर गया, आपण रह्या छिपाइ ॥ 
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जिस देहधारी को देह का प्रमाद होता है, उसको क्षण में जगत्‌भ्रम दृढ़ हो जाता है। जैसे बालक को स्वम् की परछाई में वैताल दिखाई देजाता है, तैसे ही आत्मा में मन के प्रमाद से जगत् दिखाई देता है। मन अज्ञान रूप है, और वासनाएं अहम भाव बढ़ाती हैं, और मन की वृत्ति क्षण में अनेक आकार धरती है। जैसे आकास में बादळ अनेक आकार को धरते है, जैसे बहुतो को चन्द्रमा की किरणें भी भावना से अग्निरूपी दिखाई देती हैं, और कितनो को विष में अमृत की भावना होती है, तो उनको विष भी अमृतरूप हो जाता है। जैसे मन में निश्चय होता है, तैसे ही जगत लगता है। मनरूपी बाजीगर जैसी रचना चाहता है, तैसी ही रच लेता है, और मन का रचा जगत् सत्य नहीं और असत्य भी नहीं। प्रत्यक्ष देखने से सत्य है, और असत्य नहीं, और नष्टभाव से असत्य है, सत्य नहीं, और सत्य असत्य भी मन से लगते है, वास्तव में कुछ नहीं, आत्मसत्ता अपने आप में ही स्थिर हैं। 

इति सिद्धम 

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