卐 सत्यराम सा 卐
एक सेर का ठांवड़ा, क्योंही भर्या न जाइ ।
भूख न भागी जीव की, दादू केता खाइ ॥ ५६ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह पेट एक सेर अन्न का ‘ठांव’ है परन्तु यह रीता ही बना रहता है अर्थात् सुबह - शाम को भरा, फिर खाली । इस जीवन की जन्म - जन्मान्तरों से भी भूख निवृत्त नहीं हुई । कितना ही उपभोग करता आ रहा है ? अर्थात् अधिक से अधिक तृष्णा भोग - पदार्थों की बढ़ती जाती है । परमेश्वर का नाम - स्मरण किये बिना इसको सन्तोष नहीं आता ॥ ५६ ॥
पापी पेट पिटोकड़ा, नकटा रु निपूता ।
रात भरया घी खांड सूं, दिन रीता का रीता ॥
पशुवां की नांई भर भर खाइ, व्याधि घणेरी बधती जाइ ।
पशुवां की नांई करै अहार, दादू बाढै रोग अपार ॥ ५७ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी पशुवृत्ति वाला होकर भक्ष्याभक्ष्य का कोई विचार नहीं करता है, खाने से ही मतलब रखता है । ऐसे मनुष्यों के शारीरिक और मानसिक आशा - तृष्णा रूपी रोग भारी बढ़ जाते हैं । पशु के सामने सब दिन खाने को डालते रहो, वह खाता रहेगा । ऐसे ही पशु वृत्ति वाला मनुष्य संयम का त्याग करके अनेक रोगों को प्राप्त होता है ॥ ५७ ॥
राम रसायन भर भर पीवै, दादू जोगी जुग जुग जीवै ।
संयम सदा, न व्यापै व्याधी, रहै निरोगी लगै समाधी ॥ ५८ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो योगी राम रस को अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा पुनः पुनः पीता है, वह योगी युग - युगान्तरों में अमर भाव को प्राप्त होता है । जो मुमुक्षु सदैव अपने मन को विषयों की तरफ से संयम कर लेता है, वह जन्म - मरण की व्याधि से निरोग होकर सहजावस्था रूप समाधि में स्थिर रहता है ॥ ५८ ॥
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्यु कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ - गीता
शिश्न श्वास
दादू चारै चित दिया, चिन्तामणि को भूल ।
जन्म अमोलक जात है, बैठे मांझी फूल ॥ ५९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक प्राणियों ने आत्मा को भूलकर, खान - पान, विषय - विकार आदि में ही पशु की भांति अपनी वृत्ति लगाई है । अथवा चार अवस्थाओं में ही आपा अभिमान में फूलकर अज्ञानीजन अपने मानव - जीवन को वृथा गमाते हैं ॥ ५९ ॥
राम नाम के आलसी भोजन को हुसियार ।
तुलसी ऐसे पतित को, बार - बार धिक्कार ॥
भरी अधौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाइ ।
दादू शूकर स्वान ज्यों, ज्यों आवै त्यों खाइ ॥ ६० ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे हलवाई की भट्टी, कितनी ही बार भरने पर भी आधी ही बनी रहती है, ऐसे ही सांसारिक विषयासक्त देह अध्यासी मनुष्य भी, पेट फुलाकर बैठे हैं और सूअर कुत्तों की तरह निषिद्ध भोग - वासनाओं में ही प्रवृत्त रहते हैं । ये मिथ्यावादी मनुष्य, शरीर के लालन - पालन में ही अमूल्य मनुष्य - जीवन को खो रहे हैं ॥ ६० ॥
दादू खाटा मीठा खाइ करि, स्वादैं चित दीया ।
इन में जीव विलंबिया, हरि नाम न लीया ॥ ६१ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी मनुष्यों ने खाटा, मीठा, चरपरा, अलूना, सलूना आदिक स्वादों में ही अपने चित्त को दिया है । इन्द्रियों के भोगों में ही जीव रच रहा है । मनुष्य जन्म पाकर जो परमेश्वर के स्मरण को भूल बैठे हैं, ऐसे राम - विमुख जीवों का कल्याण किस प्रकार होगा ? । ६१ ॥
कट्वक्ल - लवणात्युष्ण तीक्ष्ण - रुक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःख शोकामयप्रदाः ॥
चित्र सौजन्य ~ नरसिँह जायसवाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें