बुधवार, 27 अप्रैल 2016

= विन्दु (२)७५ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७५ =*
*= शिष्य वाजींद =*
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फिर दादूजी ने उनको पूछा - कहाँ से आये हो ? तब वाजींद ने अपनी उक्त कथा ही सुनाई, विशेष परिचय ग्राम आदि नहीं दिया । दादूजी महाराज भी संकेत मात्र से समझ गये और वाजींद को बोले -
वाजींद को उपदेश =
"भाई रे ! यों विनशे संसारा,
काम क्रोध अहंकारा ॥टेक॥
लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥१॥
आपा पर अभिमाना, केता गर्व सुमाना ॥२॥
तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण मांहीं ॥३॥
आतम राम न जाना, दादू जगत दिवाना ॥४॥
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अरे भाई ! जैसे तुमने अपना प्रमाद पूर्ण जीवन का परिचय दिया है, वैसे ही सांसारिक प्राणी प्रमाद द्वारा नष्ट होते हैं - काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मैं, और मेरापन, मद, अतिमात्रा में मत्सर, अपने पराये का अभिमान, गुण, कलादि कितने ही प्रकार के गर्व, बल आदि का घमण्ड, हृदय में रखते हैं और पंच ज्ञानेन्द्रियों के विषयों में अनुरक्त रहते हैं ।
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इससे मूला तुला और लेशा अविद्यारूप तीन प्रकार का अन्धकार नष्ट नहीं होता है और त्रिविध अंधकार के न नष्ट होने से अपने आत्मस्वरूप राम को न जानकार, मायिक सुखों में पागल हुये रहते हैं, इसलिये बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं । मृत्यु से बचने का उपाय नहीं सोच सकते ।
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तुम्हारे को अपने पूर्व जीवन से वैराग्य हुआ है, यह तुम्हारे किसी पूर्व पुण्य के प्रताप से तथा प्रभु कृपा से ही हुआ है । यह तुमने बहुत ही अच्छा किया है जो अपने घृणित जीवन से विरक्त होकर प्रभु प्राप्ति के साधन मार्ग में प्रवृत्त हुये हो ।
(क्रमशः)

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