गुरुवार, 9 जून 2016

= विरह का अंग =(३/३४-३६)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

= विरह का अँग ३ =

विरह विनती
दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात ।
कब हरि दरशन देहुगे, यह अवसर चल जात ॥३४॥
३४ - ३८ में विरह पूर्वक दर्शनार्थ विनय कर रहे हैं - हरे ! आप अपने स्वरुप के दर्शन देने की बात शीघ्र बताओ । हमें कब दर्शन दोगे ? स्वामिन ! आपके दर्शन बिना हमारे इस जीवन का समय व्यर्थ ही नष्ट हो रहा है ।
व्यथा तुम्हारे दरश की, मोहि व्यापै दिन रात ।
दुखी न कीजे दीन को, दरशन दीजे तात ॥३५॥
परम पिता ! आपके दर्शन न होने की व्यथा मुझे रात - दिन व्यथित कर रही है, अब आप मुझ दीन को दु:खी न करें । कृपा करके दर्शन दें ।
दादू इस हियड़े यह साल, पिव बिन क्योंहि न जाइसी ।
जब देखूं मेरा लाल, तब रोम - रोम सुख आइसी ॥३६॥
मेरे इस हृदय में यही दु:ख है कि - मेरे प्रभु के दर्शन नहीं हो रहे हैं और यह दु:ख उस प्रियतम के मिलन बिना किसी भी प्रकार दूर न होगा । जब मैं मेरे प्रिय प्रभु को देखूंगा तब उसके दर्शन - जन्य सुख से मेरा रोम - रोम प्रसन्न होगा ।
(क्रमशः)

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