शनिवार, 2 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/८२-४)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

= विरह का अँग ३ =

दादू विरही पीड़ सौं, पड्या पुकारे मित्त ।
राम बिना जीवे नहीं, पीव मिलन की चित्त ॥८२॥
विरही जन विरह - वेदना में पड़े हुये अपने परम मित्र परमेश्वर के दर्शनार्थ पुकारते रहते हैं । उनके चित्त में निरंतर प्रियतम के मिलन की इच्छा बनी रहती है । वे निरंजन राम के चिन्तन बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते ।
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जे कबहूँ विरहनि मरे, तो सुरति विरहनी होइ ।
दादू पिव पिव जीवतां, मुवाँ भी टेरे सोइ ॥८३॥
यदि प्रारब्ध - यश कदाचित् प्रियतम के दर्शन बिना ही विरही का देहान्त हो जाता है तो उसकी वृत्ति विरहनी बनकर स्थूल शरीर की स्थिति के सामान ही मृत्यु के पश्चात् भी पीव – पीव पुकारती रहती है । आमेर में विरही के शरीरान्त पर नभमार्ग से जाते हुये उसकी वृत्ति का "पीव - पीव” शब्द, योग बल द्वारा सुनकर यह साखी कही थी । प्रसंग कथा दृ - सु - सि - त - ९/३३१ में देखो ।
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दादू अपनी पीड़ पुकारिये, पीड़ पराई नांहि । 
पीड़ पुकारे सो भला, जाके करक१ कलेजे मांहि ॥८४॥
अन्य विरही जनों के विरह - वेदना युक्त शब्दों को सुनाने मात्र से ही कोई विरह - जन्य लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता । अपने हृदय की विरह - वेदना से पुकारने पर ही हरि दर्शन का लाभ होता है । जिसके हृदय में विरह व्यथा१ है और उसको शान्त करने के लिए ही निरंतर प्रभु को पुकारता है, यही श्रेष्ठ विरही भक्त है ।
(क्रमशः)

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