शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/११२-४)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी टीका** ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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विरह - उपदेश 
दादू तो पिव पाइये, कश्मल१ है सो जाइ । 
निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहिं लखाय ॥११२॥ 
११२ - ११५ में विरह सम्बन्धी उपदेश कर रहे हैं - यदि विरह द्वारा हृदय के पापादि१ दोष नष्ट हो जायँ तो प्रभु मिल सकते हैं । मन - दर्पण को निर्मल करो फिर तो भीतर ही प्रभु - मूर्ति दिखाई देने लगेगी । 
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दादू तो पिव पाइये, करिये मंझ विलाप । 
सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परकट होवे आप ॥११३॥ 
यदि भगवद् - विरह से व्यथित होकर, उनके दर्शनार्थ अपने अन्तःकरण में ही विलाप करते रहोगे तो वे कभी सुनकर अपने मन में तुम्हारी बात तुम्हें दर्शन देने के लिये रख लेंगे और स्वयं तुम्हारे हृदय में प्रकट हो होजायेंगे ।
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दादू तो पिव पाइये, कर सांई की सेव ।
काया मांहिं लखाइसी, घट ही भीतर देव ॥ ११४ ॥
यदि विरह - वेदना सहित भगवन् की भक्ति की जाय तो वे प्राप्त हो जाते हैं । वे निरंजनदेव अन्तःकरण में ही साक्षीरूप से स्थित हैं और भक्ति की परिपाकावस्था में काया के भीतर ही दिख जायेंगे ।
(क्रमशः)

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