卐 सत्यराम सा 卐
जीवित मृतक साधु की, वाणी का परकास ।
दादू मोहे रामजी, लीन भये सब दास ॥
दादू आपा मेटे एक रस, मन हि स्थिर लै लीन ।
अरस परस आनन्द कर, सदा सुखी सो दीन ॥
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साभार - Madhusudan Murari
भारतीय ऋषियोँ ने आत्मज्ञान को भय के निवारण का एकमात्र उपाय बताया है। जो अपने में सब को और सब में खुद को देखता है वह तत्वज्ञानी अभय को उपलब्ध हो जाता है। भय भेद में है, अभेद में नहीं। सर्वात्मभाव जागने से उसे इस सत्य का बोध हो जाता है कि दुसरोँ से घृणा करने का अर्थ है की स्वयं से घृणा करना है। इसलिए जो खुद के प्रतिकुल है किसी अन्य के साथ नहीं करना चाहिए। ये अनुभूति होते ही भय मिटने लगता है।
जहर का प्याला पीते हुए सुकरात ने कहा था कि ''एथेन्सवासियोँ! तुम सभी डरपोक हो और तुच्छ जीवन को ही महान समझते हो। तुम सब तुच्छ जीवन की डगर पर चलो। मैंने सत्य के लिए मृत्यु का वरन किया है; क्योंकि मैं जानता हूँ कि सत्य के लिए मृत्यु भी श्रेयस्कर है। मृत्यु से वही डरते हैं जो मृत्यु के रहस्य को नहीं जानते। मृत्यु के रहस्य को जानना ही जीवन जीने की कला को पहचान लेना है। जिसकी वासनाएं जीते जी मर गई, उसने अभय की स्थिति प्राप्त कर लिया। वास्तव में अभय की स्थिति ही जीवन है इससे इतर हर पल मृत्यु है।
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