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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ८० =*
*= राघवदासजी को उपदेश =*
राघवदासजी एक दिन अवकाश होने से कुछ जिज्ञासा लेकर हाथ जोड़े हुये दादूजी के सामने बैठे थे । दादूजी ने उनके मन के भाव को जानकार तथा उनका अधिकार देखकर यह पद बोला -
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मन रे ! राम बिना तन छीजे,
जब यहु जाय मिले माटी में, तब कहु कैसे कीजे ॥टेक॥
पारस परस कंचन कर लीजे, सहज सुरति सुखदाई ।
माया बेलि विषयफल लागे, तापर भूल न भाई ॥१॥
जब लग प्राण पिंड है नीका, तब लग ताहि जनि भूले ।
यहु संसार सेमल के सुख ज्यों, तापर तू जनि फूले ॥२॥
अवसर यही जान जगजीवन, समझ देख सचु पावे ।
अंग अनेक आन मत भूले, दादू जनि डहकावे ॥३॥
हे मन ! राम भजन के बिना शरीर क्षीण हो रहा है, फिर यह नर शरीर मिट्टी में मिल जायगा तब बता तू अन्य शरीरों में कैसे राम भजन कर सकेगा ? अतः शीघ्र ही ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा सुखप्रद सहज समाधि में जा और ब्रह्मरूप पारस से मिलकर अपने को निर्मल करले ।
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हे भाई ! मायारूप बेलि के तो विषय रूप विष-फल ही लगते हैं, उस पर तू भूलकर भी मत जाना जब तक स्थूल सूक्ष्म-शरीर अच्छे हैं तब तक उस प्रभु का भजन करना मत भूल । शरीर रोगी या अति वृद्ध होने पर भजन होना कठिन है । यह संसार सेमल वृक्ष के समान प्रतीति मात्र ही सुखप्रद है । सेमल के लाल फूलों को देखकर माँस के लोभ में गिद्ध आते हैं और निराश होते हैं ।
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शुक पक्षी उसके फल को खाने के लिये उसके पास रहता है किंतु उसमें रुई निकलने से वह भी निराश हो जाता है, वैसे ही सांसारिक सुख से किसी की भी आशा पूर्ण नहीं होती है । उस सुख पर तू मत प्रसन्न हो यह अच्छा अवसर है, जगजीवन परमात्मा को ही अपना जानकार विचार द्वारा उनका साक्षात्कार कर, तो तुझे परमानन्द प्राप्त होगा ।
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परमात्मा से अन्य स्त्री पुत्रादि अनेक शरीरों को देखकर उनकी आसक्ति द्वारा प्रभु को मत भूल, उनके बहकावे में मत आ । मन के व्याज से राघवदासजी को उक्त पद से उपदेश दिया ।
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इसको सुनकर राघवदासजी भी अत्यन्त संतुष्ट हुये और उक्त पद के उपदेश के समान ही अपने को बनाने का प्रयत्न करने लगे । राघवदासजी दादूजी के सौ शिष्यों में हैं । इन्हीं दिनों में करड़ाला के पीथा(प्रीतम) निर्वाण गोत्र के क्षत्रिय ने सुना कि आजकल दादूजी महाराज भुरभुरा के भक्तों को कृतार्थ कर रहे हैं ।
(क्रमशः)
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