॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= विरह का अँग ३ =
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दादू कहै - साधु दुखी संसार में, तुम बिन रह्या न जाइ ।
औरों के आनन्द है, सुख सौं रैनि बिहाइ ॥९१॥
भगवन् ! इस संसार में आपके विरही संत ही दुखी हैं । आपके दर्शन बिना उनसे सुख - पूर्वक नहीं रहा जा सकता । अन्य सांसारिक प्राणी तो मायिक पदार्थों की प्राप्ति में ही आनन्द मानकर अपनी आवु - रात्रि अज्ञान - निद्रा में ही सुख से व्यतीत कर रहे हैं ।
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दादू लायक हम नहीं, हरि के दरशन जोग ।
बिन देखे मर जाँहिंगे, पिव के विरह वियोग ॥९२॥
ज्ञात होता है - अभी हम हरि के दर्शन करने में समर्थ यथार्थ साधन करने के योग्य नहीं हो सके हैं । अत: प्रियतम के दर्शन बिना ही उनके वियोग जन्य - विरह - दु:ख से दु:खी होकर मर होजायेंगे ।
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विरह पतिव्रत
दादू सुख साँई सौं, और सबै ही दु:ख ।
देखूँ दरशन पीव का, तिस ही लागे सुख ॥९३॥
९३ - ९४ में विरह - पूर्वक पतिव्रत दिखा रहे हैं - हम विरही जनों को तो भगवद् - दर्शन से ही सुख मिल सकेगा । अन्य संपूर्ण मायिक पदार्थों की प्राप्ति में तो हमें दु:ख ही होता है । प्रियतम ! अब ऐसी कृपा करिये, जिससे हम आपके दर्शन निरंतर करते रहें । उस निरंतर दर्शन करने रूप कार्य में लगे रहने से ही, हमें अखण्ड सुख मिलेगा ।
(क्रमशः)
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