॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
**= विरह का अँग ३ =**
विरह - विनती
आज्ञा अपरंपार की, बसि अम्बर भरतार ।
हरे पटम्बर पहरि कर, धरती करे सिंगार ॥ १५७ ॥
१५७ - १५९ में विरह पूर्वक विनय कर रहे हैं - हे अपरंपार, विश्व - भर्तार, परमात्मा ! मैं आपकी आज्ञानुसार, आपको प्राप्त करने के लिए उद्यत् हो रहा हूं । आप मेरे हृदयाकाश में निवास करके अपनी कृपा - वृष्टि करें । जिससे मेरे अन्तःकरण की धारणा शक्ति - धरणी, सर्व हितैषिता रूप हरे रंग से रंजित, आपके स्वरुप संबंधी विचार - वस्त्र धारण करके अपनी शोभा बढ़ायेगी ।
वसुधा१ सब फूले फले, पृथ्वी अनन्त अपार ।
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥ १५८ ॥
उस धारणा शक्ति रूप पृथ्वी१ के आश्रय रहने वाले संपूर्ण दैवी संपदा के गुण रूप वनस्पति विशेष रूप से फूलें फलेंगी, फिर तो यह मेरी बुद्धि रूप पृथ्वी अनन्त प्राणियों को अपार सुख – प्रद बन जायेगी । अत: आप मेरे हृदयाकाश में, स्वस्वरूप - घटा से प्रेमाभक्ति प्रदान रूप गर्जना करते हुये ज्ञान - जल से मेरे अन्तःकरण - स्थल को परिपूर्ण कर दीजिये । ऐसा करते ही मेरी अज्ञान पर विजय होकर जय जयकार रूप ध्वनि होने लगेगी ।
काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।
मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल ॥ १५९ ॥
इति विरह का अंग समाप्त: ॥ ३ ॥ सा - ४४७ ।
दीनदयालु स्वामिन ! आपके स्वरुप रूप घर में शक्ति रूप मेघों की कमी नहीं है । अत: आप ज्ञान - जल वर्षा द्वारा मेरे अन्तःकरण प्रदेश के सांसारिक तृष्णा - दुष्काल को नष्ट करके ब्रह्मानन्द - सुकाल कर दीजिये । आँधी ग्राम में अकाल पीड़ित जनता के हितार्थ वर्षा करने के लिए इन्द्र को १५७ - १५९ से प्रेरित किया था । प्रसंग कथा दृ - सु - सि - त - ९/१५६ में देखो ।
इन्द्र को प्रेरित करने के पक्ष का अर्थ इस प्रकार है - हे प्रभो भर्ता इन्द्र ! तुम्हें अपरंपार परमात्मा की आज्ञा है - तुम नभमंडल में बसते हुए वर्षा द्वारा पृथ्वी की पालना करो । फिर भी आप वर्षा क्यों नहीं कर रहे हैं ? अब आप शीघ्र ही वर्षा करें, जिससे यह धरणी वृक्षावलि रूप हरा वस्त्र पहन कर सुशोभित होगी ॥ १५७ ॥ सभी वसुधा के वृक्षादि फूल - फल देंगे, पृथ्वी में अन्नादि अनन्त पदार्थ उत्पन्न होंगे, उनसे अपार प्राणियों को सुख मिलेगा । अत: आप नभ - मंडल में गर्जना करते हुए जल के द्वारा पृथ्वी के सरोवरादि स्थलों को परिपूर्ण कर दें, जिससे पृथ्वी पर आनंद हो जाय ॥ १५८ ॥
दीनदयालु पृथ्वीपते ! वर्षा करो, क्योंकि तुम्हारे घर में मेघों की तो कमी है नहीं फिर दुष्काल को नष्ट करके सदा के लिए सुकाल क्यों नहीं करते ? आपको शीघ्र वर्षा करनी चाहिए ॥ १५९ ॥
यह प्रेरणा पूर्ण होते ही इन्द्र ने वर्षा कर दी थी ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका विरह का अंग समाप्त: ॥३॥
(क्रमशः)
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