मंगलवार, 9 अगस्त 2016

= विन्दु (२)८२ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐सत्यराम सा卐* 🇮🇳🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*= विन्दु ८२ =*
.
*= प्रेतों की मुक्ति =*
उसको अपने चरणों में पड़ा देखकर परम दयालु दादूजी ने उसे यह पद सुनाया -
ता को काहे न प्राण संभाले ।
कोटि अपराध कल्प के लागे, मांहिं महूरत टाले ॥टेक॥
अनेक जन्म के बन्धन बाढ़े, बिन पावक फँद जालै ।
ऐसो है मन नाम हरी को, कबहूं दुःख न सालै ॥१॥
चिन्तामणी युक्ति सौं राखे, ज्यों जननी सुत पालै ।
दादू देख दया कर ऐसी, जन की जाल न रालै ॥२॥
हितकर उपदेश कर रहे हैं - अरे प्राणी ! जो कल्प(ब्रह्मा का एक दिन) भरके हृदय में लगे हुये पापों को एक मुहूर्त(४८ मिनट का एक क्षण) में हटा देते हैं, उन प्रभु का स्मरण क्यों नहीं करता है ?
वे अनेक जन्मों के कर्म बन्धनों को काट डालते हैं । बिना अग्नि ही भक्तों के फंद को जला देते हैं । अरे ! तू अपने मन में सोच तो सही, उन हरि का नाम ऐसा शक्तिशाली है कि - स्मरण करने वाले को कोई भी प्रकार का दुःख व्यथित नहीं करता है ।
जैसे माता अपने पुत्र का पालन करती है, वैसे ही युक्ति से चिन्तामणि-रूप हरि अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । अरे ! देख तो सही, वे ऐसी दया करते हैं कि - उनके भक्त को यमदूत अपने जाल में नहीं डाल सकते ।
.
उक्त उपदेश को सुनकर वह प्रचंड प्रेत अपने साथी सौं भूतों के सहित भूतयोनि से मुक्त हो गया । गत दिन जो नाथसंत दादूजी के पास आये थे वे प्रति दिन रात्रि के तीन बजे उठकर वन में भूताग्नि देखा करते थे किन्तु आज उनको वन में भूताग्नि नहीं दिखाई दी तब उन्होंने समझ लिया कि अवश्य ही दादूजी ने प्रेतों को पवित्र कर दिया होगा । फिर वे नाथसंत दादूजी के पास आये और प्रणाम करके बोले - स्वामिन् ! मुझे आश्चर्य हो रहा है कि - वे प्रचण्ड प्रेत किस प्रकार पवित्र हुये होंगे ?
.
नाथ संत का उक्त वचन सुनकर दादूजी महाराज ने यह पद बोला –
राम रमत देखे नहिं कोई, जो देखे सो पावन होई ॥टेक॥
बाहर भीतर नेड़ा न दूर, स्वामी सकल रह्या भरपूर ॥१॥
जहँ देखूँ तहँ दूसर नांहिं, सब घट राम समाना मांहिं ॥२॥
जहाँ जाऊँ तहँ सोई साथ, पूर रह्या हरि त्रिभुवन नाथ ॥३॥
दादू हरि देखे सुख होहि, निशि दिन निरखन दीजे मोहि ॥४॥
राम तो सब में रम रहे हैं, किन्तु कोई भी अज्ञानी उनको देखता नहीं है । जो उनको व्यापक रूप से देखता है, वह पवित्र होकर अन्य को भी पवित्र करने वाला हो जाता है । उन प्रभु को बाहर-भीतर, समीप व दूर नहीं कह सकते । वे सब में परिपूर्ण हो रहे हैं । मैं तो जहाँ भी देखता हूँ वहाँ अन्य को देखता ही नहीं । सभी घटों में राम समाये हुये हैं । मैं जहाँ जाता हूँ, वहाँ ही उन्हें साथ देखता हूँ । वे त्रिभुवन के स्वामी हरि सर्वत्र परिपूर्ण हो रहे हैं । जब हम हरि को देखते हैं, तब आनन्द होता है । हे प्रभो ! आप अपना स्वरूप मुझे रात्रि-दिन प्रतिक्षण देखने दीजिये, मुझ से छिपकर न रहिये ।
.
उक्त पद सुनकर नाथ संत समझ गए कि ये उच्चकोटि के संत हैं, इनके दर्शन से ही प्रेतों की मुक्ति हो सकती है फिर इनके वचन सुनने से प्रेतयोनि से छुट जायें इसमें तो कहना ही क्या है ? समझ में तो यही आता है कि प्रेतों को प्रेतयोनि से छुड़ाने के लिये और यहां के लोगों का भय मिटाने के लिये ही दादूजी महाराज रात्रि में आग्रह पूर्व यहाँ विराजे हैं । यदि यह बात नहीं होती तो नरवदजी के अति आग्रह करने पर अवश्य नगर में पधार जाते तथा मेरे आसण पर ही पधार जाते किन्तु इनको तो यह कार्य करना ही था । ऐसा मन में विचार करके तथा ऐसा ही वहाँ बैठे हुए भक्तों को कहकर दादूजी महाराज को प्रणाम किया फिर वे नाथजी अपने आसण पर चले गये ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें