मंगलवार, 9 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१४५-७)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**= विरह का अँग ३ =**
.
**विरही - विरह - लक्षण**
जे हम छाड़ैं राम को, तो राम न छाड़ै ।
दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढै ॥१४५॥
१४५ - १५२ में विरही और विरह के लक्षण कह रहे हैं - जैसे नशेबाज नशे को छोड़ना चाहे तो भी नशे को मन से किस प्रकार निकाल सकता है ? अर्थात नहीं । वैसे ही जब हम विरही विरह की तीव्रावस्था में राम को छोड़ना चाहें, तो भी राम हमको नहीं छोड़ते ।
.
विरहा पारस जब मिले, विरहनि विरहा होइ ।
दादू परसै विरहनी, पिव पिव टेरे सोइ ॥१४६॥
जब विरही भक्त को पारस के सामान शुद्ध और उत्तम विरहावस्था की प्राप्ति होती है, तब विरही विरह - रूप ही हो जाता है और विरह के साथ अभेद हुआ यह विरही अपने प्रियतम को पीव - पीव पुकारता हुआ उसी में मिल जाता है ।
.
आशिक१ माशूक२ ह्वै गया, इश्क कहावे सोइ ।
दादू उस माशूक का, अल्लह आशिक होइ ॥१४७॥
जब प्रेमी१, प्रेम - पात्र२ हो जाता है तब ही उसका प्रेम सच्चा माना जाता है । इस प्रकार जब विरही भक्त भगवत् - स्वरुप में अभेदावस्था को प्राप्त करता है, तब स्वयं भगवन् उसके प्रेमी बन जाते हैं और यह प्रेम - पात्र बन जाता है । सीकरी शहर में अकबर बादशाह ने प्रश्न किया था - सच्चे प्रेम और सच्चे प्रेमी का क्या लक्षण है ? इस साखी से उसी का उत्तर दिया था ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें