॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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नैनहुँ नीर न आइया, क्या जाणैं वे रोइ ।
तैसे ही कर रोइये, साहिब नैनहुँ जोइ ॥१३८॥
भगवद् - विरह वेदना मेरे हृदय को व्यथित कर रही है किन्तु मेरे इन नेत्रों में तो किंचित् भी अश्रु - जल नहीं आया है । ठीक है, वे मायिक भोग - पदार्थों के लिए ही रोना सीखे हैं, मायातीत ब्रह्म प्राप्ति के लिए रोने की पद्धति को वे क्या जानें ? किन्तु तुम विरही - जनों को तो उसी प्रकार रोना चाहिए, जिस प्रकार शीघ्र ही अपने नेत्रों से भगवद् का दर्शन कर सकें ।
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विरह - विलाप
रात दिवस का रोवणाँ, पहर पलक का नांहि ।
रोवत - रोवत मिल गया, दादू साहिब मांहि ॥१३६॥
१३६ - १३९ में विरह पूर्वक विलाप दिखा रहे हैं - भगवद् - विरही जनों का रुदन रात - दिन निरंतर होता रहता है, सांसारिक मनुष्यों के सामान पहर या क्षण का नहीं होता । वे तो भगवद् - दर्शनार्थ रोते - रोते अन्त में भगवत् स्वरुप में ही मिल जाते हैं ।
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दादू नैन हमारे बावरे, रोवें नहिं दिन रात ।
सांई संग न जागहीं, पिव क्यों पूछे बात ॥१३७॥
हमारे नेत्र पागल हैं, इसीलिए तो अपनी तृप्ति के कारण भगवद् - दर्शनार्थ दिन - रात नहीं रो रहे हैं । हमारा मन भी नाम - चिन्तन द्वारा भगवन् के साथ नहीं जागता, फिर ऐसी स्थिति पर प्रियतम प्रभु हमारे दु:ख सुख की बात कैसे पूछेंगे ?
(क्रमशः)
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