गुरुवार, 4 अगस्त 2016

= विन्दु (२)८२ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ८२ =*
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*= नाथ संत का आना =*
नरवदसिंह के जाने के पश्चात् एक संत आये और जयनाथजी की करके बोले - संतों ! यह स्थान ठहरने योग्य नहीं है । यहाँ पर एक प्रचंड प्रेत रहता है । आप लोग मेरे आसण पर चलो, वहां ही आसन लगाना । यहां नहीं ठहरो । और यदि हठ करके यहां आसन रक्खोगे तो उस प्रचंड प्रेत के आगे तुम्हारी कुछ भी सिद्धाई नहीं चलेगी ।
नाथ संत के उक्त वचन सुनकर दादूजी ने कहा - संतजी ! आपने जो भय दिखाया है, उससे देहाध्यासी व्यक्ति ही डरते हैं । जिनके देहध्यास नहीं रहता है, उनका योग क्षेम तो स्वयं भगवान् ही करते हैं । उक्त प्रकार कहकर दादूजी ने ये साखी कही -
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"काया माहीं भय घणा, सब गुण व्यापे आय ।
दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाय ॥१॥
खड़ग धार विष ना मरें, कोई गुण व्यापे नाँहिं ।
राम रहे त्यों जन रहै, काल झाल जल मांहिं ॥२॥
शरीराध्यास की स्थिति में बहुत भय है और उसी शरीराध्यास की स्थिति में सर्व गुण हृदय में व्याप्त होते हैं किंतु शरीराध्यास रहित जो होते हैं वे निर्भय परब्रह्म को ही अपना घर समझकर उसके स्वरूप में जाकर स्थिर होते हैं । आत्म स्थिति वाले संत खड़ग की धार से तथा विष से नहीं मरते हैं और कोई गुण भी उनको नहीं व्यापता है । जैसे निर्विकार राम रहते हैं, वैसे ही भक्तजन रहते हैं । उनको काल, अग्नि, ज्वाला और जल भी नष्ट नहीं कर सकते ।
(क्रमशः)

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