卐 सत्यराम सा 卐
कर्मों के वश जीव है, कर्म रहित सो ब्रह्म ।
जहँ आत्म तहँ परमात्मा, दादू भागा भ्रम ॥
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साभार ~ Anand Nareliya
ताओ उपनिषाद–(भाग–6) प्रवचन–117...osho
बड़ी मीठी घटना है कि मोहम्मद के शिष्य अली ने मोहम्मद से पूछा कि आपकी बातें सुन कर ऐसा लगता है कि हम परम स्वतंत्र भी हैं और परम परतंत्र भी; ये दोनों विरोधाभास कैसे फलित हो रहे हैं?
मोहम्मद तो सीधे-सादे आदमी थे। वे कोई बड़े दार्शनिक न थे, कुछ पढ़े-लिखे न थे। इसलिए मोहम्मद की बात में जो सचोट अभिव्यक्ति है, वह तुम्हें मुश्किल से कहीं मिलेगी। मोहम्मद तो बिलकुल अपढ़ गंवार। लिखना भी पता नहीं कि कैसे लिखें। बड़ी चोट है, क्योंकि उनकी जीवन की अनुभूति सीधी-सीधी है। शब्दों की आड़ नहीं है, शास्त्रों का फैलाव नहीं है।
मोहम्मद ने कहा, तू ऐसा कर अली कि खड़ा हो जा और कोई भी एक पैर ऊपर उठा ले। अली ने बायां पैर ऊपर उठा लिया। मोहम्मद ने कहा कि अब तू दायां भी उठा ले। उसने कहा, अब आप जरा ज्यादती कर रहे हैं। बायां जब उठा लिया तो अब दायां नहीं उठा सकता। मोहम्मद ने पूछा कि मैं तुझसे यह पूछता हूं कि जब मैंने पहली दफा तुझसे कहा कि कोई भी पैर उठा ले, तब तू स्वतंत्र था या नहीं?
अली ने कहा, बिलकुल स्वतंत्र था; चाहता तो दायां उठाता, चाहता तो बायां। लेकिन अब तू क्या अनुभव कर रहा है? बायां तूने उठा लिया, अब दायां क्यों नहीं उठा सकता? अब तू परतंत्र अनुभव कर रहा है। बिलकुल स्वतंत्र था शुरू में, तू कोई भी पैर उठा लेता, लेकिन उस पैर के उठाने के कारण अब तू परतंत्र है।
अब उसका परिणाम है कि अब तू दाएं को नहीं उठा सकता; बायां उठा लिया, अब दायां नहीं उठा सकता। मोहम्मद ने कहा, ऐसी ही है परम स्वतंत्रता मनुष्य की, और ऐसी ही है परम परतंत्रता।
कृत्य करने को तुम राजी हो। जो भी कृत्य तुमने किया, बिलकुल स्वतंत्र थे। कोई तुमसे कह न रहा था कि तुम यह करो। लेकिन जब तुमने कृत्य कर लिया, एक पैर उठ गया, दूसरा पैर बंध गया। वह दूसरा पैर है परिणाम का। कर्म की स्वतंत्रता है, कर्म-फल की स्वतंत्रता नहीं।
इसलिए अगर तुम चाहते हो कि परिपूर्ण स्वतंत्र रहो तो कर्म करने के पहले सोच लेना। कर्म करने के बाद तुम स्वतंत्र न रह जाओगे। छूट बड़ी है, बड़े-बड़े छेद हैं उसके जाल में, लेकिन तुम उससे भाग न पाओगे। कोई उससे बच नहीं सकता है। प्रत्येक कृत्य के पहले स्वतंत्रता तुम्हारे द्वार पर खड़ी होती है। और प्रत्येक कृत्य के बाद परतंत्रता खड़ी हो जाती है।
इसलिए तो हिंदू कहते रहे हैं कि कर्म से जो छूट गया वही वस्तुतः छूटता है। जो कर्म से छूट जाता है वह न तो स्वतंत्र रह जाता, न परतंत्र; उसको हम मुक्त कहते हैं। वह दोनों से मुक्त हो जाता है। उसका फिर कोई आवागमन नहीं है। फिर जैसे अब वह परमात्मा के जाल में फंसी मछली न रहा, बल्कि स्वयं परमात्मा का जाल हो गया, परमात्मा के साथ एक हो गया।
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