॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
**= विरह का अँग ३ =**
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दादू नैन हमारे ढीठ१ हैं, नाले नीर न जांहिं ।
सूके सरां सहेत वै, करंक भये गलि मांहिं ॥१३९॥
हमारे नेत्र अति निर्लज्ज१ हैं, कारण, भगवद् - विरह – व्यथा होने पर भी इनसे अश्रु जल के नाले नहीं चल रहे हैं और यदि भीतर जल ही नहीं रहा है तो सूखे सरोवर की मच्छियों के सामान अडिग स्नेह से गल कर पंजर क्यों नहीं हो गये ?
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**विरही - विरह - लक्षण**
दादू विरह प्रेम की लहरि में, यहु मन पंगुल होइ ।
राम नाम में गलि गया, बूझै विरला कोइ ॥१४०॥
विरही और विरह का लक्षण कह रहे हैं - विरह - सरिता की प्रेम - तरंग में यह मन विषयाशा रूप पैरों से रहित होकर निश्चल हो जाता है और राम - नाम - स्मरण द्वारा सब अंधकार गल जाने पर मन नाम के साथ अभेद हो जाता है, क्षण भर भी स्मरण नहीं त्यागता । इस स्थिति को कोई विरला संत ही जान पाता है ।
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**विरहाग्नि**
विरह अग्नि में जल गये, मन के मैल विकार ।
दादू विरही पीव का, देखेगा दीदार ॥१४१॥
१४१ - १४३ में विरहाग्नि विषयक विचार कह रहे हैं - जिसके मन के पाप और कामादि विकार विरहाग्नि से जल गये हैं, यही विरही अपने प्रभु का साक्षात्कार कर सकेगा ।
(क्रमशः)
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