॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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विरह - पतिव्रत
बाट विरह की सोधि कर, पंथ प्रेम का लेहु ।
लै के मारग जाइये, दूसर पाँव न देहु ॥ १५४ ॥
१५४ - १५५ में जैसे पतिव्रता एक पति परायण होकर रहती है, वैसे ही एक विरह – साधना का व्रत लेने की प्रेरणा कर रहे हैं - विरह की प्राप्ति का साधन खोज करके प्रेम का पंथ पकड़ो और चित्त - वृत्ति को भगवत् - स्वरुप में लीन करके भगवत् में ही प्रवेश करो । इस विरह रूप भगवत् - प्राप्ति के साधन से भिन्न नाना सकाम साधनों में मत पड़ो ।
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विरहा बेगा भक्ति सहज में, आगे पीछे जाइ ।
थोड़े मांहीं बहुत है, दादू रहु ल्यौ लाय ॥ १५५ ॥
तीव्र विरह शीघ्र ही भगवन् से मिला देता है और नवधादि भक्ति के साधक अपनी साधनानुसार आगे पीछे सहजावस्था में जाकर भगवन् से मिलते हैं । विरह थोड़े समय में ही बहुत लाभ पहुँचाता है । अत: विरह द्वारा ही अपनी वृत्ति सदा भगवन् में लगाये रहो ।
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विरह - बाण
विरहा बेगा ले मिले, ताला - बेली पीर ।
दादू मन घाइल गया, सालै सकल शरीर ॥ १५६ ॥
विरह - बाण की विशेषता कह रहे हैं - जब तीव्र विरह - बाण लगता है, तब अत्यन्त व्याकुलता - प्रद पीड़ा के सहित मन घायल हो जाता है । यह वेदना सारे शरीर को व्यथित करती है । ऐसा विरह शीघ्र ही सांसारिक भोगासक्ति से ऊंचा उठाता है और अपने साथ लेकर भगवन् से मिला देता है ।
(क्रमशः)
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