卐 सत्यराम सा 卐
दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।
कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥
तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।
दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥
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साभार ~ राजेश वशिष्ठ
प्रिय मित्रो, भक्ति बिना मांग की हो, तभी फलित होगी केवल भगवत्-पूजा ही मुक्ति का उपाय है। उसके अतिरिक्त जो नाना प्रकार के यज्ञ, व्रत और सकाम पूजा आदि हैं, वे सब बंधन के कारण हैं। बंधन स्वर्ण के भी हों तो क्या? बंधन तो बंधन ही है। इच्छा मात्र जंजीर बन जाती है। वासना मात्र बंधन बन जाती है। मनुष्य ने कुछ भी मांगा स्वर्ग मांगा, बैकुंठ मांगा, और भूल हो गई।
प्रेमी मांगता नहीं। प्रेमी कहता है, मुझे स्वीकार कर लो, मुझे अपना लो, तुम ही तुम फैल जाओ मेरे ऊपर। सकाम न हो प्रार्थना, सकाम न हो पूजा, कुछ भी पाने की वासना न हो। आह्लाद से हो, आकांक्षा से नहीं। आनंद से हो, अनुग्रह से हो, अपेक्षा से नहीं। बस, ये ही सारा भेद है। प्रेम का ये जो रास्ता है, भक्ति, इस मे जो जितना मिटता है, परमात्मा की अनुकंपा उसे उतनी ही ज्यादा मिलती है।
कृपा बरसती है और जिस क्षण मनुष्य पूरा मिट जाता है, उसी क्षण उसके भीतर परमात्मा का आविर्भाव होता है। इसका ये अर्थ नहीं है कि मनुष्य पूजा न करे। ये भी अर्थ नहीँ है कि मनुष्य को यदि मूर्ति प्रिय है तो मूर्ति के सामने बैठ कर चुपचाप वार्ता न करे। इतना ही अर्थ है कि सब सहज और आकांक्षा-शून्य हो। प्रार्थना और पूजा किसी लक्ष्य को पाने हेतु न हो। कोई भी इच्छा शेष न हो, कुछ भी पाने या होने का भाव न बचे तभी भक्ति।
जय सनातन।
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